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अनेकान्त
सुभाषित मणियां
प्राकृतलाज्जोएण त्रिण। जो इच्छदि मोक्ख मग्गनुवतुं । मित्रदिघलयो धयाम् || - शिवार्य | 'जो मनुष्य ज्ञानके उद्यान विना चारित्र-नपरूपी मोक्षमार्ग में गमन करना चाहता है वह अंधा अंधेरे में दुर्गम स्थानको जानकी इच्छा करता है ' [ दुर्गम स्थानको अधेरे में जाना अति दुःखकर होता है — उसमें व्यर्थ हो को हो खनी पड़ती हैं उसी प्रकार बिना ज्ञानायक चारित्र और तपक मार्ग पर चलनेमे व्ययकी ठोकरें खाने के सिवाय और कुछ नतीजा नहीं निकलता । | जेसिं विसरी तेसि दुक्खं वियाण सन्भावं । जदि त हि सम्भावं वावारां रात्थि विसयत्थं ।
- कुन्दकुन्दाचाय |
'जिनकी इन्द्रियविषय में श्रासक्ति है उनके दुःख म्वाभाविक समझना चाहिये, क्योंकि यदि वह स्वभावसे न हो तो विषय के लिये इन्द्रियव्यापार ही नहीं बनता । भावार्थ - इन्द्रियोका विषयव्यापार रोगोपचार के सदृश है और इसलिये उनके दुःखरूप होने को सूचित करता है।
[ग होने पर मोपचारकी ज़रूरत नहीं रही उसी प्रकार यदि इन्द्रिया दुःख में निरत होती तो विषयगा की इच्छा भी नही इच्छा जब पाई जाती है तो वह रागकन है और इस लिये इन्द्रि को दुरूप सूचित करती है ।
परं बाधासहियं विच्छिरणं बंधकर णं विसमं । जं इंदिएहि लद्धं तं साक्खं दुक्खमेव तथा ।। — कुन्दकुन्दाचार्य |
(
' (पुण्यजन्य भी) इंद्रियसुख वास्तव में दुःखरूप ही है; क्योंकि वह पराधीन है- दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए है, बाधा सहित - क्षुधा तृष्णादिककी अनेक
वर्ष १, किरण ११, १२
बांधाओं अथवा आकुलताओं से युक्त है, विच्छिन्न हैप्रतिपक्षभूत असाताके उदयसे विनष्ट अथवा सान्तरित हो जाने वाला है, बन्धका कारण है - भोगानुलग्न रागादि दोषोंके कारण कर्मबन्धनका हेतु है, और विषम है - हानिवृद्धि का लिये हुए तथा तृप्तिकर है। [ इन्द्रियमुखको दुःखम्प कहने के लिये ये ही पांच कारणा मुल्य हैं । अतीन्द्रियमुखमें इनका सद्भाव नहीं इसी लिये वह सच्चा सुख है। ] जावई लिउ उवसमइ, तामइ संजदु होइ । होइ कसायहं वसिगयउ, जीउ अमंजदु सोइ ॥ - योगीन्द्रदेव |
'जिस समय ज्ञानी जीव उपशमभावको धारण करना है उसकी कपायें शान्त होती हैं— उस समय वह संग्रमी होता है और जिस समय ( कोचादि ) कपायोंके अधीन प्रवर्तता है उस समय वह असंयमी होता है ।
| इसमें स्पष्ट है कि मयनीपना तथा श्रमयमीपना किमी बाह्य वषादि क्रियाकागड पर ही अवलम्बित नही है बल्कि उसका आधार कषायां का अभाव तथा सद्भाव है। और इस लिये कषायरूप परिणत
एक महावती मुनि भी यही है और कषाय की उपशान्तता को लिये हुए एक माती गृहस्थ भी गयी है ।]
किरियारयिं किरियामेतं च दो वि एगंता । अममत्था दाउ 'जम्ममरणदुक्ख पा भाई' | - सिद्धसेनाचार्य | ' क्रियारहित ज्ञान और ज्ञानरहित मात्र क्रिया ये दोनों ही एकान्त हैं और 'जन्म मरणादि दुःखोंसे भय मत कर' इस प्रकारका श्राश्वासन जीवको देने के लिए असमर्थ हैं।' भावार्थ- कोरा ज्ञान या कोग चारित्र अभयपदकी प्राप्ति नहीं करा सकता - संसारकं दुःखों से छुटकारा नहीं दिला सकता । दोनों मिलकर ही उस कामको कर सकते हैं ।