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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ सस्कृत
कर वहाँ लाता है जहाँ पहलेसे उसकी मनि ठहरी हुई
होती है । परन्तु एक पक्षपातरहित मनुष्य की ऐसी यदि पापनिरोधोज्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । नीति नहीं होती, वह अपनी मतिको वहाँ ठहराता है अथ पापासवोऽस्त्यन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् ॥ जहाँ तक यक्ति पहुँचती है-अर्थात् उसकी मति प्रायः
-स्वामी समन्तभद्र। यतयनुगामिकी होती है। 'यदि पापका निगंध है-पापासव नहीं होता है भसता हि विनम्रत्वं धनषामिव भीपणं । और इस लिये किसीकं पाम धमसम्पत्ति तथा पुण्य वि
-वादीभसिंहसूरिः। भूति मौजूद है- तो फिर उसके लिये दूमरी-कुलै
'असन पुरुषोंकी-दुर्जनोंकी-विनम्रता धनषोंकी श्वर्यादिरूप-सम्पत्तिका क्या प्रयोजन है ? वह उस
'नगह भयंकर होती है।' के आगे कोई चीज नहीं । और यदि आत्मामे पापास्रव बना हुआ है तो फिर दूमरी-कुलेश्वर्यादिरूप- "ह दारिद्र! नमस्तुभ्यं सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादनः। सम्पत्ति किस काम की है ? वह उस पापाम्रवकं कारण पश्याम्यहं जगन्स न मां पश्यति कश्चन ॥" शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गतिगमनादिको दारिद्र ! तुझं नमस्कार हो, तेरे प्रसादमें में गंक नहीं सकेगी। (अतः ऐमा सम्पनिको पाकर मद सिद्धपदको प्रान हो गया हूँ; क्योंकि मैं सब जगतको करना और इम सम्पत्तिमे रहिन दूसरे धर्मात्माश्रीका देवता है परन्तु मुझे कोई नहीं देखता।' तिरस्कार करना मूम्बंता है )'
यह पाबड़ा नीमार्मिक है। मिद भावान मका वखते हैं
3, काई नदी दग्यताइतनामी बानका लेक इनमें एक परिख मनुष्य दिदोषमंयक्तः प्राणिनां नव नारकः । कागा दशाका अच्छा विवीचा गया है भार यह सुचित किया पतन्नः स्वयमन्येपा न हि हस्तावलम्बनम ॥ गया है कि दारा मनुष्य गण की मार भाषा भी जटित टिम
-वादीभमिहमार। दमनाना , परन्तु उमसी मार काई प्रांत भरलमाता भी
नी' 'जो गगादि (गग-द्वेप-काम-क्रोधादि ) दापोम ..
- "देहीनि वचनं श्रुत्वा देहम्याः पंचदेवताः । युक्त है वह जीवाका नारक नहीं हो सकना; क्योंकि जो बुद ही पनिन हो रहा है-डब रहा है-उसके दूमग
" मुम्वान्निर्गस्य गच्छन्ति श्री-ही-धी-धृति-कीर्तयः।।"
व का उद्धार करने के लिये हस्तावलम्बन दना नहीं बनना- हम वचनको सुनकरदहमें स्थित श्री (लक्ष्मी), दृसगेका उद्धार वहीं कर मकता है जो बुर पहले अ. ही ( लज्जा ), धी ( बुद्धि ), धृति (धैर्य ) और कीर्ति पना उद्धार किये हुए हो।'
नामक पाँच देवता मुखके मार्गमे निकल कर बाहर
चले जाते हैं।' भाग्रहीना निनीपनि युनियनत्र पनिम्म्य निविष्ठा ।
इसमें एक युक्तिमे अपने लिये याचनाकाने अथवा भीर पत्नपानरहिनस्य तु युक्तियत्र तत्रमनिरेनि निवेशम् ॥
मांगनेमा दोषमतलाया गया और यह मूचित किया गया कि 'खेद है कि हठमाही मनुष्य युक्तिको बीचमाँच उसने पाच वातांको क्षति की है।