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अनकान
[वष १, किरण ११, १२ की इन दुष्प्रिवृत्तियोंको ढकनेका प्रयत्न कर सकता है। किसी ऐसे मनष्यक लिखे हुए तो नहीं हैं, जो स्वयं उसे यह शक्का हो सकती है कि इस घटना प्रकाशित किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक मोहसे अंधा थाहोनस जैनधर्मके गौरवकी हानि होगी; परन्तु एक अर्थात् दूसरे मम्प्रदायका गौरव घटाने के लिए तो उस ऐतिहासिक लेखक इस घटनाको यथानथ्य प्रकट ने उक्त प्रयत्न नहीं किया है। परन्तु ऐसे मौकों पर भी करनेमें जरा भी कुगिठन न होगा। क्योंकि वह जानना इतिहास लेखकको धैर्य और सत्यका आग्रह न छोड़ है कि व्यक्तिविशेषके चरितकी होनता और उस्चतास देना चाहिए। हृदय में किसी प्रकारका विकार या किसी ममूचे समाज या सम्प्रदायकं चरितकी माप क्रोधादि न लाकर इस बातकी खुब जाँच कर लेनी नहीं हो सकी और इस घटनाके छिपानेस ऐतिहा- चाहिए कि वास्तवमे ही उक्त प्रमाण विश्वस्त नहीं है। सिक सत्योंमे लोगोंको जो शिक्षा मिलती है उससे वे यदि थोड़ी भी शंका रह जाय, तो उस शंकाको छिपा बञ्चित हो जायेंगे । लोग इमसे जान सकते हैं कि न रखना चाहिए-अपन लेखमें उसका भी उल्लेख कर विद्वान होमस ही कोई चारित्रवान नहीं हो सकता है। देना चाहिए। ज्ञान दुमरी बात है और चारित्र दूमगे । मानव चरिन जैनधर्मक ग्रंथों में, शिलालेखामें, स्थविगवलियों में, की जो दुर्बलता आजकलकं भट्टारकोंमें पाई जाती है. पट्टावलियांमे भाग्नवर्षक इतिहासको बहुमूल्य सामग्री जमका पाँचौ वर्ष पहले भी अस्तित्व था । 'उम समय छिपी हुई है । भारतवर्पका जो इतिहास तैयार हो रहा भट्टारकोंके आचरण का सत्रपात हो चका था । संघ. है, उसका सम्पूर्ण और सुस्पष्ट बनाने के लिए जैनियां मोह या सम्प्रदाय-माहने। उस समय के विद्वानों पर भी को चाहिए कि वे अपने साहित्यका अच्छी तरहम अपना अधिकार जमा लिया था और इससं उक्त अन्वेषण, आलोडन और पर्यवेक्षण करके उममेम विद्वान प्रथोमें यदि उसके चरितकी दुर्बलताका कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रकटीकरण करें । इससे न केवल प्रभाव पड़ा हो, तो उसका सावधाननासे विचार जैनसाहित्यकाही महत्व प्रकट होगा किन्तु भारतवर्षकरना चाहिए-उन्हें सर्वज्ञवचनोके समान बिना तक का इतिहास भी श्रधरा न रहेगा। परन्तु इस कार्यम 'वितर्क किये मानने के लिए तैयार न हो जाना चाहिए। सफलता तब ही प्राप्त हो सकेगी जब कि हम इतिहास
इत्यादि अनेक बातें ऐसी हैं जिनमें हम बहुत कुछ को इतिहासकी ही दृष्टि से देखेंगे। ऐसा न करके यदि 'लाभ उठा सकते हैं । इसके सिवाय जिन प्रमाणों से हम धार्मिक पक्षपातमें पड़ जावेंगे, अपने इतिहासको उक्त विद्वानके चरितकी दुर्बलता प्रकट होती है वे यदि हम भारत के इतिहासका ही एक अंश न मममेंगे यदि माज किसी तरहसे छिपां भी दिये जायें, वो भी -केवल अपना ही महत्व प्रकट करनेवाला समझने, 'यह निश्चय है किभी न कभी उनका वास्तविक रुप तो हमारा विश्वास उठ जायगा और जो काम हम प्रकाशित हुए बिना न रहेगा।
करना चाहते हैं वह हमसे यथेष्ट रूपमें न हो सकेगा। - “हाँ, इस बात का सायाल अवश्य रखना चाहिए - हमारा कुछ भाधुनिक कथासाहित्य ऐसा है जिस कि जिन लेखों या प्रमाणोंसे उक्त दुजताका अंश में बहुतसे सुरमित ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित निक्य प्रकट होता है ये अविश्वस्त तो नहीं हैं । अर्थात वे हैं और जहाँ तक हमने इस विषयमें विचार किया है