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अनकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ प्रामाणिक मानिए और फिर दूसरं शिलालेखादि कर्तृत्वादिके नातं सरि या प्राचार्यकी उपाधि लगाई बाहरी प्रमाणोंसे उसकी पुष्टि कीजिए और तब उनका जा सकती है। ऐसी दशामें इतिहासशोधकोंकोचाहिए ऐतिहामिक मत्यके रूपमें प्रचार कीजिए। कि वे प्रयत्न करके इनका संशोधन करें, इनके यथार्थ
उक्त कथानोंक ममान हमारी पट्टावलियाँ और त्वका पता लगावें और जब तक इस विषय में सफलता गर्वावलियाँ भी भ्रमसे खाली नहीं है । जहाँ से इन न हो, तब तक किसी प्राचार्यके समयादिका निर्णय पट्टावलियों श्रादिका प्रारंभ होता है, वहींस प्राचार्यों करते समय केवल इन्हीं पर अवलम्बित न रहें। का ममय ठीक ठीक नहीं मिलता । मूलसंघके जिन यदि सत्य कहना कोई अपराध न हो, तो हमें जिन प्राचार्यों के ग्रंथादि मिलते हैं अथवा शिलालेखा- कहना पड़ेगा कि हमारा आधुनिक साहित्य-वह सानिस उनका समय निश्चित होना है, पट्टावलीसे उस हित्य जिसे कि बहुत करके पिछले पांच सौ-छह सौ ममयको मिलाइए, तो नहीं मिलना । ऐसी दशामें वर्षके भट्टारकोने या दूसरे विद्वानोने लिखा है और जग्यक लोग कभी ना पट्टावलियोंके सम्बनको विक्रम जिसका बहुभाग कथाओंस परिपूर्ण है प्रायः दुर्बल, मंवन मान लेते हैं और कभी शक मंवन मान लेने है भ्रमपूर्ण, संकीर्ण और निम्न श्रेणीका है और आश्चर्य भीर जब इमस भी पूरा नहीं पड़ता, तो विक्रम और की बात यह है कि इस समय इसीका सबसे अधिक शकके जन्म और मृत्य के दो दी जदा जदा मंवत मान प्रचार है।कुछ पुगणग्रंथोंको छोड़कर दूसरे कथापंथोंमें कर अपना काम निकालते हैं। इस भ्रमका कारण यह नौवीं दशवीं शताब्दीमे पहले प्राचीन ग्रन्थोके तो कहीं मालूम होता है कि या तो असली पट्रावलियाँ नष्ट भ्रष्ट दर्शन भी नहीं होते हैं । ऐसी दशामें इतिहाम-शोधकों होगाई हैं या वे हमारे प्राचीन भण्डागेमें कहीं छिपी को चाहिए कि वे इस पिछले कथामाहित्यस जो प्रमाहई-पड़ी हैं और उनके स्थानमें दो सौ चार मी वर्ष ण संग्रह करें उन्हें बहुन विचारके माथ उपयोग पहले के अट्टारकों आदिफी बनाई हुई पट्टावलियाँ तथा लावें-उनके विषयमें सर्वथा निःशङ्क न हो जावें। गुर्वाजलियाँ प्रचलित हो गई हैं और रचयिताओंकी जो लोग जैनधर्म का इतिहास लिखना चाहते हैं, इतिहासानभिज्ञताके कारण उनमें भूलें हो गई हैं। उन्हें सारी दुनियाका नहीं, तो कमसे कम भारतवर्षक एक बात और है । इन पट्टावलियोंके रचने वालों को ममम ऐतिहासिक प्रन्थाका अध्ययन अवश्य करना यह भ्रम हो गया था कि जिस तरह एक भट्टारकके चाहिए । केवल जनसाहित्यकी खोजस ही जैनियोंका पाप दूसरा गहरी पर बैठता है, गही कभी खाली नहीं इतिहास बन जावेगा, ऐसा नयाल करना रालत है । रहती उसी तरह पूर्वकालमें भी कुन्दकुन्द समन्तभद्र क्योंकि भारतवर्षसे-भारतवर्षके दूसरं धर्मोस-और भावि भाचार्योकं बाद उनके शिष्य और उनके बाद जनसाधारणसे जैनधर्म कभी जुदा नहीं रहा। जिस तरह जनके शिष्य गद्दी पर बैठे होगे; परन्तु वास्तवमें ऐसा जैनसाहित्यकी सहायताके बिना समप्र भारतका इतिहै नहीं । कुन्दकुन्दादि गहरीधर नहीं थे। ऐसा भी नहीं हास संपूर्ण नहीं होता, उसी तरह भारत के इतिहासकी मालूम होता कि ये सभी किसी न किसी मुनिसंघके सहायताके बिना जैनधर्मका इतिहास भी नहीं बन नेता या प्रवर्तक ही थे। इसके बिना भी विद्वत्ता, पंथ- सकता।