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. आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ]
अनेकान्त के अच्छे प्रदर्शनको लिये हुए हैएकेनाकर्षन्ती श्लयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्र मिव गोपी।
भक्तिभाव भरदे
इसमें बतलाया है कि जैस गोपी मक्खन निकालनेके लिए एक डोरीको स्वींचती है और दूसरीको ढीली करती है तब ही मंथन-क्रिया का टीक संपादन करके मक्वन निकाल सकती है वैसेही बुद्धि जब एक धमको मुख्य रूप से खींचती है और शेष धर्मक पक्षको गौणरूपसे ढीला कर देती है तब ही वह वास्तविक वस्तुगत स्वरूपको मंथन करके, सारभूत हेयोपादेयरूप नवनीत निकाल सकती है। यही जननयवादकी नीति है ।
पाठकगण ! यदि इस नीतिका सम्यक प्रयोग हम सब अपने जीवनम करें तो मैं निश्चयपूर्वक कह सक ता हूँ कि जीवन में एक पूर्व क्रान्ति उत्पन्न हो सकती है, जिसके फनस्वरूप हम अपनी सब अधीगतियोंमें मुक्त होकर उन्नत-गतिगामी बन सकते हैं; क्योंकि जिस प्रकार अदिसावादका असली प्रयोग क रनेवाला जगतमें उत्तम उत्तम, सहृदय, कोमलान्त करण, दयालु और जगत्सृज्य व्यक्ति बनता है उसी प्रकार अनेकान्त मनुष्य सच्चा समालोचक, न्यायवादी, उदाग्वृद्धि, सर्वागका ज्ञाता और विश्वकी विभृति वन सकता है | जगत में जितने अन्याय-अन्याचार होते हैं वे सब उन्हीं लोगोंके द्वारा होते है जिन
दुःखमय जगत के विभवकी चाह नहीं
चाह नहीं ईश ! मुझे पदाधीश करदे । पराधीन रोगसम भोगोकी न चाह मुझे
चाह नहीं बड़े बड़े महलों में घरदे ।
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की कि बुद्धि मिथ्या एकान्तवाद से (कोरे पक्षपात से ) दूषित होकर कठोर हो जाती है। और उस कठोरता के कारण ही यथेच्छ वृत्तिकी परिपुष्टि के लिए संपूर्ण शक्तियों का उपयोग कराती है तथा न्याय-अन्याय के विवेक से शून्य हो जाती है । अतः यदि यह कहा जा कि अनेकांतवाद के विना समझे अहिंसावादकी भी कुछ क़ीमत नहीं है तो कुछ श्रत्युक्त नहीं होगा । जगत में इतिहास साक्षी देता है कि जितने कठोर और भयंकर पाप न्याय व धर्मके नाम पर हुए हैं उतने दूसरे किसी चीज़ के नाम पर नहीं हुए । और जिन शक्तिशाली अथवा मायाचारी लोगोने न्याय और धर्मके नाम पर अलोकोको फुसला कर सरल-सीधे व्यक्ति पर - त्याचार किये है वे सब इस श्रनेकान्तवाद के न समझने के कारण ही किये है । अनेकान्तवाद युक्तिपूर्ण निर्वैरवृत्तिपूर्वक एक प्रकार की विशाल बुद्धिका श्रात्मा में अवतार होता है और उसके कारण यह आत्मा सा अहिसक बन कर स्वपरका कल्याण करता हुआ संसार के पाप कर्म से रहित होकर अपनी पूर्ण श्रात्मसिद्धियोको प्राप्त करना है। अतः भगवान महावीर के इस विशाल तत्वको जो लोग म्वत धारण करके जगनको समझाने है उन लोगोका ही जन्म सफल होता है।
भक्ति भाव भरदे
[ लेखक - पं मुन्नालालजी "मग " ]
A.
महकारी पुत्र, पौत्र, मित्रकीन चाह मुझे
चाह नहीं स्वर्णमयी जेवर जर दे । छोड़ जग-राह चाह नाथ ! एक चाहना है
भक्त- 'मणि' - मानस में भक्तिभाव भरदे ॥