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प्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र कीतियाँ लुप्त हो रही हैं, दया उनमें रही नहीं, स्वार्थ- गिड़ाने पर भी उसे एक गरीब बनिएके गले मढ़ दिया त्याग करना वे जानते नहीं और एकता उनसे कोसों और दो चार सौ रुपया देकर उसे कहीं अन्यत्र भेज दर है । जैनसमाजके उक्त दानी या प्रभावनांगके प्रेमी दिया । यह कहनेकी तो आवश्यकता ही नहीं है कि महाशय यदि इन बातोंको सोच सकते-उनके हृदय काकीके जाते ही वर्तमान काननकी कृपासे आप उस हाता, वे सचमुच ही दान करना चाहते, तो अवश्य ही की कई हजारकी सम्पत्तिके अधिकारी बन गये और उनका धन उच्च श्रेणीके विद्यालयों,हाईस्कूलों, कालेजों, 'सिंघईजी' तो इसके पहले ही बन गये थे ! दुःख है पुस्तकालयों,पुरातत्त्वमंदिरों,विज्ञानशालाओं,पुस्तकप्रचा- कि बेचारे सिंघईजी विगत वर्ष अभिनव मुनिसंघके रकसंस्थाओं, छात्रवृत्तियों, उपदेशकभंडागें,औषधालयों दर्शन करने के लिए सम्मेदशिखर गये और वहीं बीमार
और औद्योगिक शालाओं, जैसी उपयोगी संस्थाओंके होकर घर लौटते लौटते पंचत्त्वको प्राप्त हो गये । ये ग्वालनमें लगता। परन्तु जड़ मशीनोंमें हृदय हो तब न? हैं, हमारे समाजके रथप्रतिष्ठाकारोंके चरित्र !
मैंने कई रथप्रतिष्ठा करानेवाले ऐसे देखे हैं जिन्होंने प्यारे भाइया, इस तरह मैंने निश्चय किया है कि अपने जीवनमें अपने किसी जैनी भाईको अथवा जैनियोंका वर्तमान आचरण केवल एक यान्त्रिक दूसरे किसी अनाथको एक पैसेकी सहायता नहीं दी, चारित्र है-जड़ मशीनों-जैसा आचरण है-और अपने दुखी कुटम्बियों को भी जिन्होंने रोजगारसे लगा वास्तविक चारित्रसे वह कोसों दूर है । यह ठीक है देने तककी उदारता न दिखलाई, और तो क्या जिन्होंने कि बहुतसे सजन इसके अपवादस्वरूप भी होंगेकभी अपने खान पहरने और आराममें भी खर्च न उनमें वास्तविक चारित्र पालने वाले भी होंगे; परन्तु किया, परन्तु सिंघई बननेके लिए थैलियोंके मुँह खो- मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, वह सब बहुत्व की अपेक्षा लनेमें जरा भी देर न लगाई । मैं पूछता हूँ कि क्या से कहा है। मैं समझता हूँ कि बहुतोंको मेरे ये विचार यही उच्च श्रेणीका आचरण है, और इमीको धर्मबुद्धि कड़वे मालूम होंगे; परंतु इसके लिए मैं उनसं क्षमा कहते हैं ?
माँगता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि वे इस शोचनीय ___कोई १६-१७वर्ष पहलेकी बात है, एक बूढ़े धनि- अधःपतनसं अपने भाइयोंको ऊपर उठावें और उनके कनं इधर तो एक दश वर्षकी लड़कीके साथ विवाह वास्तविक चर्चा त्रको उन्नत करें। पहले उन्हें चारित्रका किया और उधर लगे हाथों इस पापस मुक्त होनेके अभिप्राय समझाया जाना चाहिए और फिर उन्हें लिए रथप्रतिष्ठा करा डाली! परन्तु उधर ज्योंही लोगों- उनकी शक्ति और परिस्थितियों के अनुकूल क्रमागत ने अापको सिंघईजी बनाया, त्यो ही :धर यमका पर- चरित्र पालन करने में अग्रसर करना चाहिए।जबतक वाना आ पहुँवा । बेचारी बालिका विधवा हो गई। उनका हृदय विशाल न होगा, उसमें ज्ञान और विश्वमिंघई जीके कुटुम्बी इतने दयाल निकले कि उन्होंने व्यापी प्रेमका दीपक प्रकाशित न होगा,स्वाधीनतापुर्वउसकी परवरिश करने की भी आवश्यकता नहीं समझी क भला बग समझनकी शक्ति न होगी, क्षमा-दया-मैत्री और विधवाके पिताको उन पर नालिश करनी पड़ी। श्रादि कामल भावोंका उत्थान न होगा, तब तक कहने
एक और परवार धनिकन रथप्रतिष्ठा कराई और के लिए धर्मात्मा, पंडितजी, भाईजी, त्यागी, संयमी उसमें लगभग दस हजार रुपये खर्च किये । उसी आदि भले ही बन जावें,परन्तु मनष्य न बनसकेंगे। * ममय मालम हाकि आपकी विधवा काकीको जो
ना यवती थी पाँच महीनका गर्भ है और वह आपकी ही कृपाका प्रसाद है ! बहुतसे यत्न किये गये, परंतु गर्भ- * कुछ वर्ष पहले लिम्व हुए लेखकी सशोधित, परिवर्तित पात न हो सका। आखिर आपने काकीकी इच्छा न और परिवर्द्धित नई प्रावृत्ति, जो 'अनेकान्त'के लिये तय्यार की गई । रहते हुए भी, उसके हजार गेने चिल्लाने और गिड़.