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आषाढ श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] कालकाचार्य
'साम्बी' राजाओं को बड़ा भय मालूम हुआ । किन्तु आचार्यश्री की आज्ञानुसार वे अपने अपने सैन्यको वहाँ से पाँच कोस दूर ले गये, और सर्वश्रेष्ठ १०८ वागावलियों को आचार्य के पास रक्खा | जब गर्दभी
शब्द करनेके लिये मुख खोला, उस समय उन लोगों ने एक साथ इस प्रकार बाण छोड़े, कि उन चारण गर्दभीका मुख भर गया, और वह शब्द करने के लिये असमर्थ हो गई । परिणाम यह हुआ कि वह गर्दभी गोभिल्ल राजा पर कुपित हुई, और राजाके मस्तक पर विष्ठा करके एवं उसको लात मार कर आकाश मार्गमे चली गई ।
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'साखी' राजाओ के सैनिक किले की दीवारें तोड़ कर अंदर दाखिल हो गये और गर्दभिल्ल राजाको बाँध कर कालकाचार्य के पास ले आए। आचार्यश्री को देखते ही गर्दभिल्ल राजा शरमा गया । आचार्यश्रीने उसको उपदेश देते हुए कहा- 'एक सती साध्वीके चारित्रको नष्ट करनेके पापका तो यह एक पुष्पमात्र दंड है। तुझे इसका खास फल तो भविष्यमे - परलोक में मिलेगा ।'
तत्पश्चान गढ़भिल्लको, उसके आत्मा की शुद्धि करने के लिये, दीक्षा प्रदाण करनेका उपदेश दिया | परन्तु वह उपदेश निष्फल हुआ। कहा है कि
अङ्गारः शतधौतन मलिनत्वं न मुञ्चत । 'सौ बार धोने पर भी कोयला मलिनताको नहीं छोड़ना।' तु ।
इस प्रसंग पर वे सब 'सावी' राजा उसको मार डालने के लिये उन हुए, परन्तु श्राचार्यश्री नं 'पापी पापेन पच्यने' ऐसा समझ कर, उस पर दया करते हुए उसको छुड़ा दिया; पश्चात् उस राजाने उस देशका त्याग किया |
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इस राज्य के विभाग करते समय, आचार्यश्रीने, उस 'साखी' राजाको, जिसके यहाँ आचार्यश्री ठहरे थे, खास उज्जैनीका राज्य दिया, और अन्य ९५
उज्जैन की गढ़ी पर आये हुए शक (सायी ) राजाओंके गन्धमं कई इतिहासकार कहते हैं कि -शक कालका प्रारम्भ ई० सन में हुआ था, और उसका मुल्य राजा शालिवाहन था। मर्लि हिस्टी ऑफ इन्डिया' में प्रसिद्ध इतिहासकार बिन्सेन्ट. प. स्मीथ. कहते हैं कि - 'भूमकक्षहरात' इस नाम कराजाने इस वाकी स्थापना की थी। '' उसका उपनाम था। वह पहली शताब्दीक अन्तमें हम हिन्नलोग शक की म्ले गमभन थे । 'नहवान' राजा एक एक था। इसके बाद चटन नामका राजा अथवा गवा था। इसकी राजधानी उनमें दी। इसके बाद अनुकमे रुद्रामा यो लिमी श मम राजाए। इस रुद्रसिंह पर चन्द्रगुप्त द्वितीय अर्थात चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने हमला किया था । यह बात ई०म० ८०० के लगभग की है।"
निक राज्यावितिक तौर पर एक लोगो का विक तीन अस्तित्व न चहिये परन्तु नमी और मे फोन, ग्लान' अन 'देश्वर जैनीस्युस्' नामक
पुस्तककी समय बाद विकनादित्य ने उनक लागोक राज्य न किया। यह विकरादित्यगभित्र राजा 4. से एक काला है।
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जीता तो शक राजाम'नहीं महीपर का प्रतित्व ही का ममयका ना चयि । काकानी गसिके पास राज्य छीन दिया। यदि यी गनिटका पुन शक राजाकी निकाल देता है नाशिककराय नम नाम मात्रक व तक रहा था पंचयि ।
'सिल्फोन ग्लास'
कहा जाय तो "गईभिल्ल, क और विक्रमादित्य विषयक ( मेरी तरफ मे करें तो कालकाचा 4 विषयक भी) कथा में ऐतिहासिक वस्तु क्या है, और क्या नहीं है, इसका निर्णय अभी तक हुआ नही है। ऐसा मालूम होता है किइस विक्रमादित्य के इतिहास का, दमं चन्द्रगुप-विक्रमादित्यके साथ (जिसने काइस्टक बाद ३० की साल में उज्जैन जीता था, मौर जो कालिाम महाकविका उतेजक था ) मम्मिश्रवा हो गया है।