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अनेकान्त
[वर्ष १;किरण ८, ९,१०० को ही अपनी कृति बनानेका पुण्य कमा डाला था। इससे सरिजीका समय विक्रमकी १५ वीं शताब्दीका इस प्रकारकी कुछ घटनाओंका पूरा हाल पाठकोंको प्रायः पूर्वार्ध पाया जाता है । इसी समयके मध्यवर्ती 'ग्रंथपरीक्षा' के तीनों भाग पढ़नसे मालूम हो सकता है। किसी वक्त 'चतुर्हारावली-चित्रस्तव' की रचना हुई
यह सब साम्प्रदायिक मोह तथा मिथ्या अहंकार- समझनी चाहिये। का परिणाम है जो इस प्रकारकी कुचेष्टाएँ की जाती नीचे प्रथम हारावली-चित्रस्तवको सरिजीकी हैं और उन्हें करने वाले निःसन्देह क्षुद्र व्यक्ति ही होतं म्वोपज्ञ संस्कृत व्याख्या सहित दिया जाता है । साथहैं। अन्यथा, एक सम्प्रदाय वाला दूसरं सम्प्रदायवाले- में हिन्दी अर्थ भी लगा दिया गया है । इससे सभी को अपने किसी ग्रंथ या स्तुति-म्तात्रके पढ़नस काई पाठक इस स्तोत्रका यथेष्ट रसास्वादन कर सकेंगे। मना नहीं करता; चुनाँचे कितने ही सुंदर ग्रंथ तथा स्तोत्रमें स्तुतिका क्रम ऐमा रक्खा गया है कि एक पाक स्तोत्रादिक एक सम्प्रदाय के दूसरे सम्प्रदायमें बड़े पूर्वार्धमें पूर्व क्रमानवर्ती एक तीर्थकरका स्तवन है तो आदरके साथ पढ़े जाते हैं। किसी स्तोत्रकं कर्तृत्वमें उत्तरार्ध में उत्तर क्रमानुवर्ती दूसरे तीर्थकरका स्तवन है। अपने समुदाय के विद्वान का नाम न होने से वह कुछ उन तीर्थंकरों के संख्याक्रमकी सूचना प्रत्येक पद्यक कम फलदायक नहीं हो सकता और न होनस अधिक ऊपर बारीक टाइपमें दे दी गई है और उनके नामाफल ही दे सकता है । स्तुतिके विषय जिनेन्द्रदेव उभय क्षरोंको दोनों ओर एक एक खड़ी लाईन लगा कर सम्प्रदायों के लिये समान रूपसे पूज्य हैं । अतः इस पृथक कर दिया गया है । इन लाइनोंको हारके डारेका प्रकारकी चेयाएँ व्यर्थ हैं । अस्तु ।
स्थानापन्न समझना चाहिये, उक्त तांत्रमें भी इसी आगमिक जयतिलक सरिके बनाये हुए चार ग्रंथ प्रकारसं लाइन लगाकर पद्योंके अक्षरोंकी स्थापना की और उपलब्ध हैं- १ मलय मुंदरीचरित्र, २ सुलसा- गई है।
-सम्पादक चरित्र, ३ हरिविक्रमचरित्र और ४ कल्पमंजरी कथा- ....... कोश । इनमेंसे हरिविक्रमचरित्रकी एक प्रति “ संवन हारावली-चित्रस्तर १४६३वर्षे कार्तिक वदी १२ दिने" इस उल्लेम्व वाली पाटनके भंडाग्में मौजूद है, ऐमा मुनि पुण्यविजयजीसूचित
पपश्चिमजिननामाक्षरहानिवद्रं जिनद्वयस्तवनम् - करते हैं और उसकी पुष्पिका इस प्रकार दत हैं:"इत्यागमिक-श्रीचारित्रामसरि-शिष्यश्री-
श्री नाभिसूनो ! जिनसार्वभौम,
श्रा। जयतिलकम रिविरचने तवान्धवामरकीर्तिगणि व पध्वज वन्नतये ममे हा। विलिखिते श्रीहरिविक्रमचरित्रे महाकाव्ये श्री- प ड्जीवरक्षापर देहि देवी हरिविक्रममहोदयपदप्रापणो नाम द्वादशः सर्गः” भर्चितं स्वं पदमाशु वी ॥१ - और 'जैनप्रथावली' से मालूम होता है कि हरिविक्रम काव्य पा जयतिलक सरिजीने खद् एक वृत्ति व्याख्या-हे श्रीनाभिसनो ! हे जिनभी लिखी है और उसकी रचनाका सम्बत् १४३६ है। सार्वभौम ! सामागकेवलिचक्रवर्तिन ! वृषध्वन!