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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि सं०२४५६] हारावली-चित्रस्तव यन् । नीलवर्णत्वाद्य पुनःप्रवाहानु कारं चकारे. भटम-सप्तदशजिन-स्तवनम्-- त्यर्थः ।।६।।
चंद्रप्रभाणोहर मे घशं कुं, ____ अर्थ - हे पद्मपभ ! (ध्यानावस्थामें) पलकों
द्रष्टा अस्मि हत्ते समकुम्भिकुं थं । की चंचलतासे रहित तथा पापोंकी भक्षण शीलताको लिये हुए आपके दोनों नेत्र बड़े ही आनन्ददायक हैं। प्र बालतां मुञ्चति नाप्ययं ना.
और हे स्वामिन् मल्लिनाथ जिन ! पृथिवी पर कुछ .. दीप्यमान होती हुई आपकी प्रभा ( कान्ति ने यमुना
भक्तः सुवर्णे त्वयि कुन्थना थ॥ क भावको धारण किया है-नीलवर्ण होनमे यमुनाके व्याख्या-हे चन्द्रप्रभ ! अष्ट जिनप्रवाहका अनुसरण किया है। सप्तमाटादशजिनयुगल तवनम् -
पते ! त्वं मे मम अणोर्दुर्बलस्य अघशङ्ख पापश्री मानसपार्थो पिडिनिस्तमा . शङ्का ( शल्यं ) हर उद्धर । यतोऽस्म्यहं ते
तव हवेतः समकुम्भिकुन्थु द्रष्टाऽवलोकयिता कुसु मत्सुग्वं देशनया चका र। म्भीच कुन्थश्च कुम्भिकुन्थु . समौ निर्विशेष स्थिनों पा रंगतः पातकवल्लरी प. कुम्भिकुन्थु यत्र तत्तथा । किमुक्तं भवति ? भगश्वे ग्रं जनं चारपतिः पना ता७ प समाना मंत्री, अतो मम दुर्बलस्य व्यथा
ही वन तव कुम्भिनि कुजरे कुन्थौ च सूक्ष्मजीवविव्याख्या-श्रीमान तीर्थकरलक्ष्मीवान काम्पिापशल्यापहारं कुर्विति । अथोत्तरार्धव्यामपार्श्वः सप्तमो निनः निस्तमा अपि निर्माहो- ख्या-हे कुन्थनाथ ! सप्तदशजिनेश्वर ! अयं ऽपि हि निश्चयेन देशन या धर्मोपदेशदानेन अ- मलमणी ना पमान न्वयि भवति सवर्ण शोभनसुमत्सखं सर्वप्राणिसोख्यं चकार कुनवानित्य वर्णे भक्तोऽपि भक्तियक्तोऽपि प्रबालनां प्रकृष्टमर्थः । अथोत्तरार्धव्याख्या-चः समुच्चये र्खतां न मुञ्चति न त्यति । अन्यां यः सुवर्ण अरपतिररनाथी जनं लोक पनानि पवित्रयति । शोभनाक्षर मन्त्र भको भवति स मुखौं न स्यात्, कथंभूतोऽरपनिः ? पारंगतः संसारसमुद्रपारं अह पनरद्यापि ज्ञानवान भवामीति भावार्थः । ८ प्रप्तः । अपरं कथंभूतः ? पानकवल्लरीपर्श्वग्रं अर्थ - हे चंद्रप्रभ ! आपका हृदय हाथी और पातकान्येव वल्लयः पर्थोग्यं पर्श्वग्र, पातकवल्ल- कुन्थु (मूक्ष्म जीवविशंप ) दोनोंक प्रति समान हैरीणां पवयं पापलताकुठाराग्रं, इदमाविष्टालग- ममान मंत्रीभावको लिये हुए है-प्रतः आप मुक मित्यर्थः ।। ७ ॥
दुर्बलकं (व्यथाकारी) पापशल्यको दूर कीजिये। और हे अथ --श्रीमपावन निर्माह हात हा भी कुन्थु नाथ ! आप शोभनवर्णका भक्त होता हुआ भी निश्चयसे अपनी देशना-द्वारा धर्मोपदंग देकर सर्व प्रा- यह मनुष्य मूर्खताको नहीं छोड़ता है- (दूसरा जा णियोंके सुखका विधान किया है। और संसारसमुद्र- कोई शोभनाक्षर मंत्रका भक्त होता है वह मूर्ख नहीं से पारको प्राप्त हुए तथा पापलताके लिये कुठाराप्रकं होता परंतु मैं अभी तक भी ज्ञानवान नहीं हुआ हूँ, यह समान अरपति (अरनाथ) लोकको पवित्र करते हैं। भाव है)।