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प्राषाढ, श्राव, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कालकाचार्य
बड़े व्यापारियोंसे परिपूर्ण था। राजा वज्रसिहx लक्ष में रखकर आचार्यश्रीने लक्ष्मी, राज्यवैभव और वहाँका शासक था । उसकी रानीका नाम सरसंदरी शरीरादिकी अनित्यताका प्रतिपादन किया, और था। सुरसुंदरीकी कुक्षिसे क्रमानुसार पुत्र कालककुमार साधुके वास्तविक सुख, एवं पाँच महाप्रतोंका यथार्थ और पुत्री सरस्वती ये दो संतानें उत्पन्न हुई। स्वरूप समझाया। __ कालक कुमार रूपवान , पुरुपके सब उत्तम लक्ष- आचार्यजी की देशना सुन कर वैराग्यवासित रणोंम सुशोभित और सर्व-जन,वल्लभ था। आठ वर्षकी गजकुमार कालक गममहाराजको यह कह कर घर अवधा होने पर कालक कुमार के माता-पितानं एक को चला, कि- "हे भगवन , आपके उपदेशसे मुझे कलाचार्य के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिये रक्खा। वेगग्य हुआ है । मैं माता-पिताकी श्राक्षा प्राप्त कर अल्प कालमें ही कालकने अनेक कलाएँ हस्तगत की। वापिस न लौटूं, तब तक आप यहीं विराजियेगा।" खाम करके अश्वपरीक्षा और बाणपरीक्षामें बालक कालक कुमाग्ने घर जाकर माता-पिताके सम्मुन्य कालकनं अच्छी निपुणता प्राप्त की।
अपनी दीक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा प्रकट की। भनेक एक समय राजा वनसिंहको, खुगसान देश सं हाँ' 'ना' होने के पश्चान , अपने पत्रकी वैराग्यवृत्ति बहुतसं घाई भेटमें आये । इन घोड़ो की परीक्षाका को दृढ़ देवकर गजा वसमिहने बड़े ममारोह के साथ काम राजानं अपने पुत्र कालक कुमारके सुपुर्द किया। अपने पत्रको दीक्षा दिलाई । अपने भाई के उत्कृष्ट
समवयस्क ५०० घड़मवागेको माथ लेकर का- वैराग्यको दम्ब कर 'कालक' की बहन 'सरस्वती' ने भी लक घाडोको फिराने के लिये वनमें गया। घोड़ों को दीक्षा ली। माता-पितानं कालकको सूचना की किग्यूब घुमा-फिराकर विश्राम लेने के लिये कालककुमार 'यह तुम्हारी बहिन है, इमको मार-संभाल बराबर एक आम्रवृक्षकी छायामें बैठ गया । इम वनम अनेक रखना।' साधुओंके परिवारयुक्त गणाकर मरि नामक एक कानक कुमार व्याकरण, न्याय, माहित्य, अलंआचार्य विराजमान थे । प्राचार्य महागज की देशना- कार, छंद, ज्योतिष और मंत्र-तंत्रादि विद्याओं में भी ध्वनि दूरवर्ती कालक कुमारक कर्णगांचर हुई । वह अच्छं प्रवीण हुए । योग्यता प्राप्त होने पर गुरुने कावहाँ में उठा और प्राचार्यजी के पास जाकर उपदंश लकको 'श्राचार्य पदवा प्रदान की । और अब ये श्रवण करने लगा । नवीन आगन्तुक गजकुमारको कालकाचाय के नाम में विख्यात हुए। चलता है कि 'धरावास' नार मगध देशर्म था -
गर्दभिल्लका उच्छेद और शककी "मगहंसु धरावासे पुरे पुरासी निवो वयरसीहो ।"
स्थापना (दी, विजयधर्मलमीज्ञानमन्दिर की एक प्रतिः) [ यहां उस प्रतिका नामादिक दे दिया जाता तो अच्छा
अनक साधुओंसे परिवृत्त कालकाचार्य किसी होता।
-सम्पादक] समय उज्जैनके बाहर उद्यान में पधारं। इसी समय ____ x इस राजा का नाम 'प्रभावक चरित्र' की किपी प्रतिमें वीर. अनेक साध्वियों के साथ साध्वी सरस्वती भी उज्जैनमें सिंह' और किसी में 'वैरिसिंह' भी दिया है। --- सम्पादक. आई। वह हमेशा भाचार्यश्री की देशना श्रवण करने