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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ]
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उप के ऊपरमे आवरण हटनेके प्रथम ही नित्य प्रति नियमित रीतिस धारा नगरीका राजद्वार खुलता, और दो अश्वारोही निर्जन पथ पर मे चल कर सुदूर
को निकल जाते । कोई नवीन देखने वाला उनको सहबधु अथवा अंतरंग मित्र समझता । नवमे fपर्यंत उनका वेषभूषा और साज प्राय. समानसा रहता । उनके मुँह पर राजतंज झलकता था ।
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कालक कुमार
[ लेखक - श्री ० भीमजी हरजीवन 'सुशील'; अनुवादक - पं० मूलचंद्र जैन 'वत्सल' ]
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रात्रि योद्धा के हाथ का भाला जिम प्रकार नागके तंज में चमक जाता है, उसी प्रकार उन दोनो अश्वारोहियो के मुखमंडल पर स्वाभाविक गौरव- तंज प्रकट होकर अंधकार में चक्राकार प्रदीप्त होता था ।
वास्तव मे ये दोनों भाई-बहन थे। इनको गहबंधु प्रथवा अंतरंग मित्र कहना भी कुछ अनुचित नहीं था । वहनरूप मे जन्म लेने पर भी 'सरस्वती' को कालककुमार अपनं लघु भाई समान समझता और सन्मान करता था। कालक कुमार धारावाम नामक मगधदेश की एक प्रधान नगरी का युवराज था, उसके पिताका नाम 'रिसिंह' था । वैरिसिहने कुमारी सरस्वतीको राजकुमारकी समान ही स्वच्छन्द्र प्रकृति में पालित किया था । वह पुरुषत्रेषमे कुमारके साथ वनमें जाती, अबविद्या सीखती और प्रातः कालके प्रथम ही अंधकार की कुछ अपेक्षा न करती हुई, भयकं स्थानमें निर्भयतःमद' नामक भी उल्लेख
- सम्पादक
कळी 'वीरसिंह' और की
निलता है
कालककुमार
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पर्वक भ्रमण करती थी । राजमहल के कृत्रिम विवेक और दंभपूर्ण सौजन्यमे भाई-बहनका यह निर्मल स्नेह कुछ अलौकिक ही प्रतीत होता था। महासागर के क्षार जलमे मीठे रसकी धारासमान कालक कुमार और सरस्वतीकी स्नेह-सरिता समस्त राजपुर मे नितान्त भिन्न प्रकार की श्री ।
नित्य नियमानुसार कालक कुमार और सरस्वती आज प्रात कालके प्रथम उठ कर समीपस्थ वन की और जा निकले थे । विलासी नगरवासियोंके जगने के प्रथम ही नगरको लौटकर आजाना दोनोंका नित्यक्रम था । सरस्वती कुछ विशेष उल्लाससे अपने घोड़ेको आगे आगे चलाती जाती थी, कुमार कालक चिन्ता प्रस्त था, वह सरस्वती के घोड़े के पीछे चलना अपना कर्तव्य
समझता था ।
घोड़ेका वेग साधारणत बढ़ने से कालक कुमार विचारनिद्रामं जगा और सरस्वतीको सम्बोधित कर बोला
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बहन | क्या शीघ्रता आ पड़ी है । तुम्हें क्या किसी दिन के लिए आज युद्धकी परीक्षा देनी है, जो इतनी शीघ्रता घोड़ा दौड़ा रही हो। दो दिनपश्चात अंतःपुर मे रहना पड़ेगा, तब यह सब तूफान शान्त हो जायगा, फिर कहीं रोना न पडे । "
सरस्वतीने घोड़ेकी लगाम खैची, भाईके सम्मुम्ब अपनी दृष्टिको श्रलक्षित रखकर बोली :
" स्त्रियों में भी तुम्हारे ही समान आत्मा निवास