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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८, ९,१०
करता है और उन्हें भी आत्मरक्षा करना होती है, और दोनों भाई-बहन घोड़ोंको वहीं छोड़ कर बनके अधि
वह तुमसे भी कहीं अधिक । "
काँश भागमें भ्रमण कर जाते । उनके लिए इस वन का कोई भी मार्ग अथवा स्थल ऐसा नहीं था जो उन से छिपा हो । यहाँ आने पर वे राजकुमार और राजकुमारीकी अवस्थाको भूल कर केवल मात्र मानवचाल बन कर सामान्य गृहस्थ कुमारों के समान जीवनलीला व्यतीत करने में आनन्द मानते थे ।
आज वे उद्विग्न थे, उन्हें किसी भी विनोदमे आनंद ज्ञात न हुआ । उनका निरंतर ही गगनमंडप चित्रित प्रभातकालीन विविध प्रकारके दृश्य अवलोकन करनेमें कितना ही समय व्यतीत हो जाता था । आज वेही बंधु हैं, वही वनराज है, वही सूर्योदय और वही आकाश है । किन्तु भविष्य की चिंताओंने आज उनके चिर आनंदरसका भक्षण कर लिया था । बहुत समय पर्यंत दोनों मौन रूपसे बैठे रहे ।
इस प्रक्षेपका उत्तर सरस्वतीको कुछ न मिला । दोनों आगे चले । “अन्तःपुरमें बन्द रहना पड़ेगा और रोना पड़ेगा " यह कहते कह तो गया परन्तु न कहा होता तो उचित था, कालक कुमारने यह पीछेसे समझा । उसका मुँह पश्चात्तापको लिए हुए था; परंतु यह देखने वाला वहाँ कोई नहीं था ।
भाई-बहन को अलग होना पड़ेगा, यह विचार आज कुछ दिनोंसे केवल भाई-बहन को ही नहीं किन्तु पिता 'वैरिसिंह' और माता 'सुरसुंदरी' को भी चिंतातुर और उद्विग्न बना रहा था । सरस्वतीको अब विवाहना होगा और कुमारके वेपमें भ्रमण करती पुत्री को गृहिणी बन कर अज्ञात अन्तःपुर में बसना पड़ेगा, इतना ही नहीं किन्तु एक दूसरे की छायासदृश रहने वाले भाईबहन का परस्पर विछोह होगा यह चिंता उनको शनैः शनैः अधिक सता रही थी । सरस्वतीको कुमारव्रत की गहरी गरी अभिलाषा है किन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उसे अपने लिए नहीं तो भी राज्यरक्षा के लिए तो व्यवश्य विवाह करना होगा - कौशल, कौशाम्बी अथवा वैशाली के किसी भी राज्य कुटुंबकी माँग मगधराज के लिए अवश्य स्वीकार करनी होगी । यदि वह ऐसा न करे तो कुमारीके लिए मगधमहाराज आपत्ति स्थान बन जाएँ, समीप के क्षुधातुर गुद्धसमान सामन्तगण मगध को निगल जायँ ।
कुछ समय पश्चात् दोनों भाई-बहन नगर अनेको तत्पर हुए। इतने में उन्होंने शहर से लोगोके कुछ समूहको अपनी ओर आते देखा । मालूम करने पर उन्हें ज्ञान हुआ कि जिनशासन के एक धुरंधर विद्वान् श्रीगुणाकर सूरि आज धारा नगरीके उद्यानमें संघसहित पधारे है ।
इस समय मगध जैन शासनका एक पवित्र तीर्थ बना हुआ था । सहम्रो जैन मुनि अहिंसा, सत्य और त्याग धर्मकी महिमाका उपदेश देते हुए मगधको एक देवभूमि बना रहे थे । उत्कृष्टसे उत्कृट भोगोपभोग और उच्च से उच्च कोटिकी त्यागअवस्था इन दोनोंका अपूर्व संगम इस भूमि पर एक समय हुआ था । भोग और त्याग एकही भूमि पर एक ही समय इतने मित्रभाव से निवास कर सकते थे, इसका अनुभव मात भूमि मगधने किया था । आजका विलास कुछ समय
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सरस्वती घोड़े पर से नीचे उतरी, घोड़ेको वृक्षसे बाँध दिया । कुमार कालकने भी घोड़ेसे उतर कर सरस्वतीका अनुकरण किया ।
आज यदि नित्य प्रतिके अनुसार उल्लास होता तो पश्चात् परम संयम बन जाता था ।