________________
आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६]
कालक कुमार
४९१
___ कालक कुमार और सरस्वतीने राजगढ़ जाने के पट्टी बांधी है, इसका हृदयस्पर्शी चित्र चित्रित करते बजाए उद्यानकी ओर अपने घोड़ोंको दौड़ाया। जिन हुए उन्होंने उपसंहार में कहा-"सर्व कृत्रिमताभोंसे शासनके निर्पथ मुनि निराबाध सुख-शान्तिके एक निर्मुक्त होकर जिन्हें केवल अपना आत्मकल्याण सासमुद्र थे, उनके निकट यदि कोई भूल कर भी जा धन करना हो उनके लिये जैनशासनके त्यागधर्मके निकले तो उनकी शीतल लहरों तथा सनातन संगीतका अतिरिक्त अन्य कोई भी उत्कृष्ट मार्ग नहीं।" आस्वाद लिए बिना पीछे नहीं आ सकता । कुमार व्याख्यान समाप्त होने पर सर्व जनसमूह आचार्य और कुमारीको समुद्र के बहुमूल्य रत्नों की अधिक श्रीको प्रणाम कर अपने अपने स्थानको चला गया । म्पहा न थी, वे तो क्षणिक शान्ति और तृप्तिकी काम- कालक कुमार और सरस्वती भी विधिपूर्वक गुणाकरनास इस ओर पानेको प्रेरित हुए थे । उनका मन सूरिकी वंदना कर राजगढ़ पहुँचे ।
आज बहुत उदासीन था; निग्रंथ मुनिके दर्शन एवं उप- राजकुमार और राजकुमारीने महल में जाकर निदशमे अल्प समयको आश्वासन प्राप्त होगा, इसके श्चितरूपसे अपनी स्थिति और शक्तिके नापनका प्रयत्न अतिरिक्त उन्हें और अधिक कुछ इच्छा न थी। किया । दोनोंने विचार किया-राज कुटुंबके लिए
गणाकरसरि इस समय शिष्यसमूहके मध्य में अनिवार्य ऐसे प्रपंचजालोमेंसे छूटने और निष्पाप एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, छोटे छोटे तारागण के समूहमें जीवन व्यतीत करनेके लिए जिनशासनद्वारा प्ररूपित चन्द्र सदृश उनकी पुण्यप्रभा समीपक समूहको उज्वल संयममार्गके अतिरिक्त और कोई उत्तम उपाय नहीं करती हुई उद्यानमें पूरित हो रही थी।
है। त्यागजीवनकी कठिनाइयाँ उनके लिए नवीन भले कुमार और सरस्वती जब वहाँ पहुँचे उस समय ही हों किन्तु उनसे वे अज्ञात नहीं थे, स्वेच्छापूर्वक आचार्य महाराज वंदनार्थ आए हुए स्त्री-पुरुषोंको जो अपने शरीरको कस सकें उनके लिए परीपह क्या त्याग धर्मकी महिमाका उपदेश दे रहे थे, सदैव श्रा- कर सकते हैं ? मोद और अस्त्र-शस्त्र की शिक्षामें तन्मय रहने वाले कालककुमार और सरस्वतीने गुणाकर सरिके सकुमार-कुमारी मुनिकी धर्मसभामें आवें, यह एक मीप जाकर मुनिधर्मकी दीक्षा ग्रहण की । मगधमाताके असाधारण घटना थी, वे दोनों अत्यंत शान्तिपूर्वक कीर्तिमंदिर पर यशस्विताका कलश भागेपित किया । श्रोताओंकी श्रेणीमें बैठ गये।
कुमार कालकने अनुक्रममे प्राचार्यका पद प्राम आचार्य महाराज, संसारके प्रपंच, दम्भ और किया । साधुसंघमें वे 'कालकाचार्य' के नामसे उच्चापाखंडका विवेचन करते हुए, समर्थ स्त्री-पुरुपोंका रित किए जाने लगे । सरस्वती साध्वियोंके समुदायमें त्याग विश्वके कितने कल्याण पथ पर पहुँच जाता है, विचरण करती अहर्निदश आत्महितका चिंतन करती यह प्रसिद्ध पुरुषोके जीवनचरितों परसे समझा रहे है। एक दूसरेसे अलग रहने पर भी मानों भाई-बहन थे। संसारी मनष्योंने अपने लिए एक कारागृह बनाया एक छत्रकी छायामें रहते हों और एक माता की गोद है जिस कागगृह के अंदर स्वार्थी पाखंडी जीवान में क्रीड़ा करते हों, इस प्रकार कृत्रिमतारहित अपने असंख्य भ्रान्तियोंकी रचना कर भद्र पुरुषोंके नेत्रों पर अपने चरित्रका परिपालन करते हैं ।