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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६]
कर्णाटक-जैनकवि
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कर्णाटक-जैनकवि [अनुवादक-श्री० पं० नाथूरामजी]
पहले भाग का परिशिष्ट [ 'कर्नाटक-कवि-चरित' के दूसरे भाग के अन्त : श्रीधराचार्य ( १८ ६) मे राव बहादुर आर० नरसिंहाचार्यजी ने एक 'परि- ये बेलबल प्रदेश के नरिगंद स्थान के रहने वाले शिष्ट' दिया है, जिसका अनुवाद आगे दिया जाता है। ब्राह्मण थे । इनका बनाया हुआ 'जातक-तिलक' ना. इस परिशिष्ट में जितनं कवियों का परिचय है, वास्तव मक ग्रन्थ उपलब्ध है । इसके अन्त्य पद्य से यह भी में पहले भाग में आने चाहिएँ थे और पहले भाग मालम होता है कि इन्होंने 'चन्द्रप्रभचरित' भी लिखा की दूसरी आवृत्ति जो हाल ही प्रकाशित हुई है, उसमें ।
था। 'अब तक कनड़ी में किमी ने ज्योतिष ग्रंथ नहीं इन सब कवियों का परिचय यथास्थान दे भी दिया लिखा है, आप जातक-तिलक लिखने को कृपा करें,' गया है। क्योंकि पहले भाग में १४ वीं शताब्दियों के विद्वानों के इस आग्रहस विवश होकर श्रापन 'जानक अंत तकके कवि दिये हैं और ये भी सब इसी समय तिलक' की रचना की थी । कनड़ी के ये सबसे पहले के भीतर के कवि हैं।
ज्यातिपप्रन्थ-निर्माता हैं । नागकुमारकथा के प्रारंभ १ श्यामकुण्डाचार्य ( ल . ७०० ई० सन ) में बाहुबलि ( १५५० ) ने आद्यज्यातिपकार लिख
इन्द्रनन्दि के 'श्रतावतार' मे मालूम होता है कि कर इन का स्मरण भी किया है । ये चालुक्यनरेश इन्होंने कनड़ी भाषा में 'प्राभूत' की रचना की थी। आहवमल्ल (१०४२-६८) के समय में थे और इन्होंने ये तुंबला-आचार्य अथवा श्रीवर्द्धदेव के समकालीन अपना ग्रन्थ ई. सन १०४९ में लिखा था । या उनके कुछ ही पूर्व हुए होंगे । इनका कोई ग्रंथ उप- इन के गद्य पद्यविद्याधर, बुधमित्र आदि सम्मानलब्ध नहीं हुआ।
मचक नाम हैं । इन्होंने आदिपंप, चंद्रभट्ट(अम्बुजारि), २ श्रीविनय दएरनाथ (ल०६१५) मनसिज, गुणवम ( शीलभद्र), गजांकुश, और ग्न कड़पा जिले के दान उलपाडु नामक गाँव के एक का स्मरण किया है । आर्यभट्टका भी उल्लेख किया है। शिलालेख से मालूम होना है कि यह अनुपम कवि प्रन्थ के प्रारंभ में जिन और मरस्वती का म्तवन है। था; परंतु इसके किसी ग्रंथका कोई उल्लेग्य नहीं मिलना 'जातकतिलक' में २४ अधिकार है-१ संज्ञा, २ है । यह राष्ट्रकूट राजा तृतीय इंद्र ( ९१५-९१७ ) का बलाबल, ३ गर्भ, ४ जन्म, ५ तिर्यग्जन्म, ६ अरिष्ट, अतिशय पराक्रमी दंडनायक था । शिलालेख से मा- ७ अरिष्टभंग, ८ आयुर्दाय, ९ दशान्तर्दशा, १० अष्टलूम होता है कि इसने अंतमें संन्यास ग्रहण करके नि- कवर्ग, ११ जीव, १२ गजयोग, १३ नाभिसंयोग, र्वाण (?) प्राप्त किया।
१४ चन्द्रयोग, १५ द्विभियोग, १६ दीक्षायोग, १७