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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६]
कर्णाटक साहित्य और जैनकवि
कर्णाटक साहित्य और जैनकवि
[ लेखक तथा अनुवादक-श्रीयुत पं० के० भुजबलि शास्त्री ]
ख्यात पंच द्राविड भाषाओं में कन्नड़ एक मुख्य ईसा की नवमीं शताब्दि में कन्नड भाषा का प्रचार - भाषा है, जिसे 'कर्णाटक' भी कहते हैं । इस उत्तर में गोदावरीसे लेकर दक्षिणमें कावेरी नदी तक भाषावर्ग में तामिल, तेलगु, मलयालम और तुलु भाषाएँ हो रहा था । परंतु इस समय वह बात नहीं रही; तो भी गर्भित हैं । हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भी मैसूर, कोडग, बम्बई प्रान्तके दक्षिण भाग, हैदराभाषाएँ संस्कृतजन्य गिनी जाती हैं । इसका कारण बाद संस्थानके पश्चिम भाग, मैसर-कोडगु के उत्तरयह है कि, मराठी आदि गौड भाषाओं में स्वतन्त्र पश्चिम-दक्षिण दिशाओं के मद्रासप्रांत के जिले, मध्यशब्द बहुत कम हैं। इन भाषाओं में व्यावहारिक शब्द प्रान्त-बगर के कुछ भाग, इतने प्रदेशोंमें यह भाषा प्रायः संस्कृतजन्य ही हैं । इसके अतिरिक्त इन भा- बोली जाती है । और इस लिये वर्तमाग समयमें कषाओंमें लिंगनिर्णय, संधि, प्रत्ययसंयोजन आदि प्र- र्णाटकप्रान्त मैसूर, हैदराबाद, मद्रास, बम्बई, बरार, क्रियाएँ संस्कृत व्याकरणकी मर्यादाको लिये हुए हैं। कोडगु, इस प्रकार छह भागों में विभक्त है । परन्तु द्राविड भाषाओं में यह नियम नहीं है। उनमें जिस प्रकार अन्यान्य प्रान्तों में साहित्य का समय संस्कृत जन्य शब्द हैं अवश्य; फिर भी व्यवहारपर्याप्त निर्धारित है उसी प्रकार कन्नड साहित्यका समय भी स्वतन्त्र शब्द अधिक संख्या में मौजूद हैं । इसके अ- प्राचीन, माध्यमिक और वर्तमान काल अथवा क्षात्र, तिरिक्त इन भाषाओंकी व्याकरण-मर्यादा भी संस्कृत मतप्रचारक तथा वैज्ञानिक कालके भेदसे तीन भेदों सं बहुत कुछ भिन्न है । इनमें लिंग अर्थ का अनुकरण में विभक्त है । प्राचीन काल ९ वीं शताब्दी से १२ वीं करता है, सन्धिक्रम भिन्न है, नामपदों के एक व- तक, माध्यमिक काल १२ वीं स १७ वीं तक और चन एवं बहुवचनों में एक ही प्रकार की विभक्तियाँ वर्तमान काल १७ वीं शताब्दी से आज तक माना होती हैं, गुणवचनों में तरतम भाव नहीं है, संबन्धा- जाता है। र्थक सर्वनाम नहीं है, कर्मणिप्रयोग कम है, क्रियाओं अब तक उपलब्ध हुए कन्नड भाषाके ग्रन्थों में का निषेध रूप है और कृत्-तद्धित-प्रत्यय भिन्न हैं। 'कविराजमार्ग' नामक ग्रन्थ ही सबसे अधिक प्रा___ कन्नड़ या कर्णाटक भाषा बहुत प्राचीन है। जिस चीन है । यह अलंकारशास्त्र-संबंधी प्रन्थ है । प्रन्थ के समय हिन्दी, बंगला, मराठी गुजराती आदि भाषाओं लेखक जैनराजा नपतंग हैं । जो राष्ट्र कूटवंश के थे। का प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था, उस समय कन्नड़- कतिपय विद्वानोंका मत है कि इस प्रन्थके लेखक स्वसाहित्य हजारों ग्रन्थरत्नों से सुशोभित हो रहा था। यं नृपतुङ्ग न हो कर उनके दरबार का 'श्रीविजय'