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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८,९,१० तीर्थस्थानों के अधिकार प्राप्त करने के लिये परस्पर गुजरात के कई एक जैन संघों में ऐसी मंडलियाँ झगड़ रहे हैं । इस निष्प्रयोजन कलहमें लाखों-करोड़ों भी विद्यमान हैं, जिनमें भिन्न २ शातियों के सभासद रुपयोंका अपव्यय कर रहे हैं। दूसरी ओर श्वेमूर्ति- परस्पर भोजन तथा कन्याव्यवहार करते हैं । पाटन के पुजक, श्वे० स्थानकवासी और श्वे० तेरहपंथी तत्त्व- जैनसंघका प्रत्यक्ष दृष्टांत है कि दस्सा पोरवाल, दम्स ज्ञान-संबंधी महत्त्वहीन भिन्नताओं के लिये परस्पर श्रीमाल और दस्सा ओसवाल इन संप्रदायों में परम्पर लड़ रहे हैं । दिगम्बर समुदाय में भी कुछ अंदरूनी- उपर्युक्त प्रकारका संबंध विद्यमान है । वहाँकी प्राचीन
आभ्यन्तरिक-अशांति मालम होती है । यह सब शा- रूढिका ही यह परिणाम है न कि सुधारकोंका। खायें प्रतिशाखायें पुनः भिन्न भिन्न समुदायोंमें विभक्त दूसरी ओर गुजरात और काठियावाड में ऐसी हैं, जो समुदाय परस्पर एक दूसरे को शांतिपर्वक भी मंडलियाँ हैं जिनमें एक ही ज्ञाति को भिन्न भिन्न रहने नहीं देते हैं । परंतु प्रतिपक्षियों के सुंदर कार्यों धर्म वाले जैन-वैष्णवादि लोग एक दूसरे के साथ को नाश करने के लिये प्रयत्न करते हैं । जब ऐसे परि- भोजन और कन्याव्यवहार करते हैं । परंतु ऐसे उदाणामहीन झगड़े बंद हो जायेंगे तब बहुत सी शक्तियाँ हरण बहुत कम पाये जाते हैं। जातिसुधार और सर्व साधारण का उत्थान करने को यदि उल्लिखित अपवादों को और दक्षिण भारतलाभदायक हो जावेंगी।
वर्षीय दिगम्बर जैनों की आदर्श स्थिति को भी एक आधुनिक भारतवर्ष में ऐसा सुधार शक्य है, इस तरफ कर देवें, तो ऐसा कहना पड़ेगा कि आधुनिक कथन की पुष्टि पंजाब के जैनों के उदाहरण से होती जैन समाज की परिस्थिति आर्थिक लाभों के लिये है । इन लोगों के बारे में यह बात सुनी जाती है अपने धर्म को छोड देने की दुःखोत्पादक भावना से कि "उन्होंने कुछ वर्ष पहले भोजन तथा कन्याव्यवहार और जैन धर्मावलम्बी सुधारक वर्गमें साहस नहीं होने की एक बडी मण्डली ( circle ) बना दी है, जिसके के कारणसे बहुत ही अस्वस्थ मालूम होती है । यह सभासद 'भावडा' इस नाम से प्रसिद्ध हैं और बात जैनधर्म के भविष्य के लिये दुःखदायक कल्पना जिसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं है।” पूर्व उत्पन्न करती है। राजपूताना, संयुक्तप्रांत और बंगाल के मारवाडी जैनों ऐस विचारों से हमारे मन में यह प्रश्न उत्पन्न में भी ऐसी बडी मंडलियाँ ( circles) हैं जो कम से होता है कि, ऐसा समय कब आवेगा जब कि, हमारी कम पेटाज्ञाति की अपेक्षा नहीं रखती हैं । दक्षिण आशाओं का अनुसरण करके, उपर्युक्त समस्त ज्ञातिवासी जैनों के बारेमें भी ऐसी ही बात सुनी जाती है। याँ जातिबंधन के हानिकारक प्रभावों से मुक्त होकर यह बात सत्य है कि उपर्युक्त प्रसंगों में जैनों की छोटी और अंधश्रद्धा व संकुचितता रूपी घनिष्ठ घास-फूस ही संख्या के विषय में विवेचन किया गया है, जो के अनिष्ट प्रभावों से छूट कर तीर्थकर महाराज के कि एक बड़े विशाल क्षेत्र में रहती हैं। तो भी "ज्ञा- प्राचीन धर्म में फिर से जीवनशक्ति प्रदान करेंगी। तीय संकुचितता त्याग हो सकती है" इस बात को
अनुवादक-भँवरमल लोढ़ा जैन बतलाने के लिये यह प्रसंग योग्य है।