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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८, ९, १० की सराक ज्ञाति, जो किसी समय में शुद्ध जैन ज्ञाति- पार्जन करने वाले तथा अपने जीवन में प्रतिष्ठा पान याँ थी, उनमें आज कल एक भी जैन पाया नहीं वाले कब होवें, यही उनको फिक्र रहती है। इस ही जाता है।
कारण से शिक्षाप्रचार की ओर कम ध्यान देते है। इससे मालूम होता है कि मध्य एवं उत्तर भारत- ____ बहुत से उच्च कुटुम्ब के जैनों ने अपना धर्म इम । वर्षीय जैन ज्ञातियों तथा धर्मशाग्वाओं की अयोग्य
कारण से छोड़ दिया कि वे लोग बहुत पीढ़ियों में सामाजिक व्यवस्था तथा परिस्थिति के कारण यह अन्यधर्मी राजा के नौकर थे और भोजनसंबंधी दशा हुई कि अंतिम वर्षों में बहुत से जैन लोग धर्म
कठोर नियमों के कारण दरबारी सभासदों के साथ भ्रष्ट हुए।
स्पष्ट व्यवहार नहीं रख सकते थे, इस लिये उन लोगो ___इसके बारे में कई एक अन्य कारण भी है । उन न इन नियमों तथा धर्मको भी त्याग दिया । ऐसी ही में से एक कारण यह भी है कि बहुत से जैन स्तुति- पोलियों के प्राचीन मनिया पाठादि बिना समझे बोलत हैं और विविध क्रियाओं
___ पर गुजरी, जिनके पर्वज, जो कि इतिहास में मुग्थ्य का उनका रहस्य समझे बिना आचरण करते हैं, और
भार तथा महत्त्वशाली पात्र गिने जाते हैं, कट्टर जैनी थे । कठोर तपस्याएँ भी कारण समझे बिना करते हैं ।
अभी उन में मुश्किल से ही कोई जैन मिलेगा। इन सबका कारण समझाने वाली एवं ज्ञान देने वाली धार्मिक संस्थाएं बहुत कम हैं । अच्छी स्थिति वाले
____ कई असंतुष्ट एवं घबराये हुए जैन, जो कि अपने
कइ धनिक जैन श्रावक अपने धार्मिक उत्सव-वर घोडा, जातिनियमो का उल्लघन करने का साहस नहीं कर पूजा, उपधान, उजमण, अदाई महोत्सव, दीक्षोत्सव, सकत थे, आर्य समाजमें जा मिले, जो कि भारतवर्षक प्रतिष्ठा और संघ निकालना-वगैरह धार्मिक प्र. आधुनिक जीवन में बहुत भाग लेता है, और बुद्धिसंगों में लाखों रुपये खर्च करते हैं। दो चार पूर्वक उदार व सुव्यवस्थित शिक्षणसंस्थाएँ खालने में वर्ष पहिले ४००० चार हजार जैन श्रावक व उत्साह दिखलाता है । मनुष्य गणना की रिपोर्ट ४०० चार सौ साधुओंका एक बड़ा संघ पाटन में (Census report ) जो मात्र जाहिर जैनों की गिरनार व कच्छ के लिये निकाला गया था। उसका ही संख्या सूचित करती है, वह इसके विषय में क्या संघपति एवं संरक्षक एक प्रसिद्ध गजराती सेठ था। जान सकतीहै कि “ बहुत से मनुष्य जिन्होंने जाहिर उस प्रसंग पर १२००००० बारह लाख रुपये का खर्च में जैनधर्म छोड़ दिया है वे अपने हृदय में जैन रहे हुआ था, ऐसा सुना जाता है । यद्यपि ऐसे धार्मिक हैं, जो धर्मभ्रष्ट होने पर भी अन्तः करण से जैन कार्यों में पुष्कल द्रव्य-व्यय किया जाता है, तथापि हैं और प्राचार विचार से जैन धर्मानयायी ह ?" शिक्षाके लिये, जो समग्र धर्मों तथा सभ्यता की जड़ और जैन संघको, जो कि चिंता पूर्वक यह देखता रहै है, यथाचित रीति से अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय कि हमारी संख्या प्रति दिन कम होती जाती है-चाहे करना बहुत जैन लोग अभी तक नहीं सीखे हैं। वे धर्म भ्रष्ट होने वाले लोग जैनधर्मके प्रति अन्तःकरण अपने पुत्र-पौत्रादि जैसे हो सके वैसे जल्दी द्रव्यो- से प्रेम रखते हों-इससे क्या लाभ है ?