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तत्त्वार्थसूत्र
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अनेकान्त
_[वर्ष १, किरण ८, ९, १०
योगदर्शन १ कायिक,वाचिक,मानसिक प्रवृत्तिरूप पासव(६,१) १ कर्माशय ( २, १२) २ मानसिक श्रासव (८, १)
२ निरोधके विषयरूप से लीगई चित्तवृत्तियाँ (१,६) ३ सकषाय और अकपाय यह दो प्रकार का आसव ३ क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकार का कर्माशय (६,५)
(२,१२) ४ सुख-दुःख-जनक शुभ, अशुभ आसव (६, ३-४) ४ सुख-दुःख-जनक पुण्य, अपुण्य कर्माशय (२, १४) ५ मिथ्यादर्शन आदि पाँच बन्ध के हेतु (८, १) ५ अविद्या आदि पाँच बन्धक क्लेश ( २, ३) ६ पाँचों में मिथ्यादर्शन की प्रधानता
६ पाँचों में अविद्या की प्रधानता (२,४) ७ अात्मा और कर्म का विलक्षण सम्बंध सो बन्ध ७ पुरुप और प्रकृति का विलक्षण संयोग सो बन्ध (८,२-३)
(२, १७) ८ बन्ध ही शुभ, अशुभ हेय विपाकका कारण है. ८ पुरुष,प्रकृतिका संयोगही हेय दुःखकाहेतु है (२,१७) ९ अनादिबन्ध मिथ्यादर्शन के अधीन है.. ९ अनादिसंयोग अविद्या के अधीन है (२, २४) १० कर्मों के अनुभागबन्धका आधार कपाय है (६,५) १० कर्मों के विपाकजननका मूल क्लेश है (२, १३) ११ आसवनिरोध यह संवर (९, १)
११ चित्तवत्तिनिरोध यह योग (१,२) १२ गप्ति, समिति आदि और विविध तप आदि ये १२ यम, नियम आदि और अभ्यास, वैराग्य आदि ___संवर के उपाय (९, २-३)
योग के उपाय (१,१२ से और २, २९ से) १३ अहिंसा आदि महाव्रत
१३ अहिंसा आदि सार्वभौम यम ( २, ३०-३१) १४ हिंसा आदि वृत्तियों में ऐहिक, पारलौकिक दोपों १४ प्रतिपक्ष भावना-द्वारा हिंसा आदि वितों का ___ का दर्शन करके उन वृत्तियोंका रोकना (७, ४) रोकना ( २, ३३-३४) १५ हिसा आदि दोषों में दुःखपन की ही भावना कर १५ विवेकी की दृष्टि में संपूर्ण कर्माशय दुःखरूप ही
के उन्हें त्यागना (७,५) १६ मैत्री आदि चार भावनाएँ ( ७, ६)
१६ मैत्री आदि चार१ भावनाएँ ( १, ३३) १७ पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितर्कनिर्वि- १७ सवितर्क, निर्वितर्क,सविचार और निर्विचाररूपचार ___ चार आदि चार शुक्ल ध्यान ९,४१-४६) ५२ संप्रज्ञात समाधियाँ ( १, १६ और ४१, ४४) १८ निजंग और मोक्ष (९, ३ और १०, ३) १८ आशिकहान-बन्धोपरम और सर्वथा हान५३ (२,२५) १९ ज्ञानसहित चारित्र ही निर्जरा और मोक्षका हेतु १९ सांगयोगसहित विवेकख्याति ही हान का उपाय
(१,१) २० जातिस्मरण, अवधिज्ञानादि दिव्य ज्ञान और चारण २० संयमजनित वैसी ही विभूतियाँ ५४ (२, ३९
विद्यादि लब्धियाँ (१, १२ और १०,७ का भाष्य) और ३, १६ से आगे) २१ केवलज्ञान (१०, १)
२१ विवेकजन्य तारक ज्ञान ( ३, ५४ ) २२ शुभ, अशुभ, शुभाशुभ और न शुभ न अशुभ २२ शुक्ल, कृष्ण, शुक्लाकृष्ण और अशुक्लाकृष्ण ऐसी ऐसी कर्म की चतुर्भगी।
चतुष्पदी कर्मजाति (४,७)। ५१ ये चार भावनाएँ बौद्ध परम्परा में 'ब्रह्मविहार' कहलाती हैं और उनके ऊपर बहुत जोर दिया गया है। ५२ ये चार ध्यान के भेद बौद्धदर्शन में प्रसिद्ध हैं । ५३ इसे बौद्धदर्शन में निर्वाण' कहते हैं, जो तीसरामार्य सत्य है। ५४ बौद्धदर्शन में इनके स्थान में पांच अभिज्ञाएँ हैं। देखो, घपग्रह पृ०४ और अभिधम्मत्थसंगह परिच्छेद : पेरेग्राफ २४ ।