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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] भगवान महावीर की शिक्षा नरक में डालने के लिये सदैव क्रोधातुर रहता है। एक वीर पुरुष है । इच्छाओं तथा इन्द्रिय-जनित ऐसे भय-संघर्षों में से अहिंसा अपना मधुर तथा को- आनन्द पर विजय प्राप्त करना कोई साधारण तथा मन मार्ग कैसे पा सकती है ?
सुगम कार्य नहीं है । यह एक बड़ा भयङ्कर युद्ध है, यदि संसार को स्थिर रखना है, यदि दुर्बल प्रा- और वही मनुष्य वास्तविक वीर-यथार्थ योद्धा-है णियो को सुरक्षित और सबल बनाना है तो अहिंमा- जो इस विषम कंटकाकीर्ण मार्गमें को गमन करता है। त्मक व्यवहार के अतिरिक्त दूसरा इसका और कोई संसार नाना प्रकारके प्रलोभनों से भरा हुआ है, इंद्रियाँ उपाय नहीं है । अहिंसा संसार को पोषण करने वाली सर्वत्र आसक्तिशीलता को लिये हुए हैं-आँख, कान, माता है । यही वास्तविक बल है । यही उन मनष्यों मनोवृत्तियाँ विषय सुखोंका आस्वादन चाहती हैं; परन्तु का पराक्रम है जिनमें पाशविकता नहीं है । यही एक जैनी, जो महावीर स्वामी की शिक्षाओं के सत्य आत्मा की वास्तिवक सामर्थ्य और शक्ति है। का यथार्थ अनगामी है, इन उन्मादिनी इच्छाओं का
अब आप जगन्मूर्ति महात्मा गाँधी पर दृष्टिडालिया नियंत्रण करता है । क्यों ? व किस शक्तिके आधार पर काम कर रहे हैं, कौनसे
३ परमात्मपद की प्राप्ति मूल सिद्धान्त पर उन्होंने अपने आपका और अपने
यहीं से तीसरी अवस्थाका प्रारंभ हो जाता है। हजारों अनुयायियों को प्राणोत्सर्ग के लिये शक्तिशाली
यह अवस्था परमात्मपदका प्राप्त करना है; यह अन्तबना लिया है ? यह केवल अहिंसा है । इमी लिये मैं
रात्माका अनभवन है। कहती हूँ कि संसार इस महान सत्यका अनुभव करने
यदि एक मनुष्य अपने आपको संसार के क्षणके लिये जाग उठा है कि शक्ति कदापि हिमामें नहीं
वर्ती पदार्थों में भ्रष्ट करता है तो वह अपने शाश्वत किन्तु वह अहिंसा में मंनिहित है । अहिंसा मानवीय
लाभों को नष्ट कर देता है । बाह्य मिथ्या और आन्तर धर्मका सबसे अधिक सुंदर और सबम अधिक दिव्य
मत्य तथा यथार्थ है । इसी में आत्मा के आनन्दका भाग है । बिना अहिंसाके कोई धर्म "धर्म" ही नहीं हो
वास है, और बाह्य पदार्थों में अकथनीय दुःग्व, बंधन सकता और न बिना अहिंसा के कोई ऊँचा भाव ही
तथा प्रपंच भरे हुए हैं। बन सकता है । यह अहिंसा ही वाम्तविक प्रेम है, यही
___मर्वानन्दमय आत्मा को म्वतंत्र-मुक्त-करने के वास्तविक दया है, यही वास्तविक धर्म है।
लिय जैन शास्त्र यह उपदेश देते हैं कि 'मंमार से २ नश्वर वामनाओं का विजय अलग हो जाओ, मर्वमंगका परित्याग करदो, शरीर
और इस धर्म पर आचरण करने के लिये हमें में भी अनगग मन रायो-विपयासक्ति को छोड़ मैंकड़ों नश्वर वासनाओं तथा शारीरिक विषय दो;-तभी तुम 'वीर' एवं 'जिन' होगे। लालसाओं का त्याग करना होता है । यही कारण है वीर होना तथा विषयासक्ति पर विजय प्राप्त कि जैनधर्मका मार्ग इतना कठिन है और जो मनुष्य करना कसा सुन्दर तथा सुहावना शब्दनाद है। किसी उसे प्राप्त करता है वह वास्तव में एक जैन है, भी दूमरे धर्म में यह सिद्धान्त ऐम समुचित रूप से