________________
आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तत्वार्थसूत्र
४५१ इसके सिवाय, कितनी ही बातें ऐसी भी हैं कि ही देहदमन, ध्यान तथा प्राणायाम आदि का बराबर जिनमें से एक बातके ऊपर एक दर्शन द्वारा तो उपयोग होवे तब तो इनमें से प्रत्येक का समान ही दूसरी बात के ऊपर दूसरे दर्शनद्वारा जोर दिया महत्व है; परन्तु जब यह बाह्यअंग मात्र व्यवहार की गया होवे से वह वह बात उस उस दर्शन के एक लीक जैसे बन जाते हैं और उनमें से मुख्य चारित्रकी म्वास विषय के तौर पर अथवा एक विशेषता के रूप सिद्धि का अात्मा उड़ जाता है तभी इनमें विरोध की में प्रसिद्ध हो गई है । उदाहरण के तौर पर कर्म के दुर्गंध आती है, और एक संप्रदाय का अनगामी दूसरे सिद्धान्तों को लीजिये । बौद्ध और योगदर्शन५५ में संप्रदाय के आचार का निरर्थकपना बतलाता है । कर्म के मूल सिद्धान्त तो हैं ही। योगदर्शन में तो इन बौद्ध साहित्य में और बौद्ध अनुगामी वर्ग में जैनों के मिद्धान्तों का तफसीलवार वर्णन भी है; तो भी इन दहदमन की प्रधानता-बाले तप५८ की निन्दा दिग्वाई सिद्धान्तों के विषय का जैन दर्शन में एक विस्तृत और पड़ती है, जैन माहित्य और जैन अनुगामी वर्ग में गहग शास्त्र बन गया है, जैसा कि दूसरे किसी भी वौद्धों के सुखशील, वर्तन और ध्यान का तथा परिदर्शन में नहीं दिखाई देता। इसीसे चारित्रमीमांसा में, ब्राजकों के प्राणायाम और शौच का परिहास दिकर्म के सिद्धान्तों का वर्णन करते हुए, जैनसम्मत खाई देता है । ऐमा होनसे उस उस दर्शनकी चारित्रमम्पर्ण कर्मशास्त्र५६ वाचक उमास्वाति ने संक्षेप में ही मीमांसा के ग्रंथों में व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध समाविष्ट कर दिया है। उसी प्रकार तात्विक दृष्टि से रखने वाला वर्णन विशेप भिन्न दिखलाई पड़े तो वह चारित्र की मीमांसा जैन, बौद्ध और योग तीनों दर्शनों स्वाभाविक है । इमी से नत्वार्थ की चारित्रमीमांमा में में समान होते हुए भी कुछ कारणों से व्यवहारमें फेर हम प्राणायाम या शोच के ऊपर एक भी सूत्र नहीं (अंतर) पड़ा हुआ नज़र पड़ता है; और यह फेर अथवा देखन, नथा ध्यान का उसमें पुष्कल वर्णन होते हुए अंतर ही उस उस दर्शन के अनगामियों की विशेषता भी उसको सिद्ध करने के बौद्ध या योग दर्शन में जो रूप हो गया है । क्लेश और कपाय का त्याग यही वर्णन किये गए हैं, एम व्यावहारिक उपाय हम नहीं मबों के मतमें चारित्र है; उमको सिद्ध करने के अनेक देवते । इसी तरह नत्वार्थ में जो परीपही और तप का उपायोंमें से कोई एकके ऊपर तो दूसरा दूसरे के ऊपर विस्तृत तथा व्यापक वर्णन है वैसा हम योग या बौद्ध अधिक जोर देता है । जैन आचार के संगठन में दहद- की चारित्रमीमांसा में नहीं देखतं । मन५७ की प्रधानता दिखाई देती है, बौद्ध आचार के इमके सिवाय, चारित्रमीमामा के सम्बन्ध में मंगठन में देहदमन की जगह ध्यान पर जोर दिया एक बात खास लक्ष्य में रग्बन-जैसी है और वह यह गया है और योगदर्शनानुसारी परित्राजकोंक आचार कि उक्त तीनों दर्शनों में ज्ञान और चारित्र-क्रियाके संगठन में प्राणायाम, शौच आदि के ऊपर अधिक।
५७ तत्वार्थ , ६ । “देहदुक्खं महाफलं" दशवकालिक जोर दिया गया है । यदि मुख्य चारित्र की सिद्धि में अध्ययन ८ उ०२ । ५८ मनिझमनिकायमूत्र १४ । ५६ सूत्रकृतां५५ देखा, २, ३-१४ । ५६ तत्त्वार्थ ६, ११-२६ और ग अध्ययन ३ उद्देश ४ गा०६. की टीका नया अध्ययन ७ गा०१४
में पागे।