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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तत्त्वार्थसत्र
४४३ उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्र कणादके वैशेषिक सत्रों तर्कवाद के जमाने में भी अप्रबोधित रहकर मात्र श्रद्धा की तरह दश अध्यायोंमें विभक्त हैं; इन की संख्या के आधार पर आज तक टिके हुए हैं५ । जब कि मात्र ३४४ जितनी है, जब कि कणादके सूत्रों की वैदिक दर्शनपरम्परा बद्धिप्रधान होकर अपने माने संख्या ३३३ जितनी ही है । इन अध्यायों में वैशेषिक हुए सिद्धान्तों की परीक्षा करती है; उसमें शंका-समाआदि सत्रोंके सदृश आन्हिक-विभाग अथवा ब्रह्मसत्र धान-वाली-चर्चा करती है, और बहुत वार तो पहले आदि के समान पद-विभाग नहीं । जैन साहित्य में से माने जाने वाले सिद्धान्तों का तर्कवाद के बल पर 'अध्ययन' के स्ान पर 'अध्याय' का आरंभ करने उलट कर नये सिद्धान्तों की स्थापना करती है अथवा वाले भी उमास्वाति ही हैं। उनके द्वारा शुरू न किया उनमें मंशोध-परिवर्धन करती है । सारांश यह है कि गया आन्हिक और पद-विभाग भी आगे चलकर उनके जैनपरम्परा ने उत्तराधिकार (विरासत) में मिले हुए अनुयायी 'अकलङ्क' आदिके द्वारा अपने अपने ग्रंथों तत्त्वज्ञान और आचारको बनाये रखनमें जितना भाग में शुरू कर दिया गया है । बाह्य रचनामें कणादसूत्र लिया है उतना नतन मर्जनमें नहीं लिया । के साथ तत्त्वार्थसूत्रका विशेष साम्य होते हुए भी उस में एक खास जानने योग्य अन्तर है, जो जैनदर्शनके
विपय-वर्णन परम्परागत मानस पर प्रकाश डालता है । कणाद विषय की पसंदगी- कितने ही दर्शनों में अपने मंतव्यों को सत्रमें प्रतिपादिन करके, उनके विषयका वर्णन ज्ञेयमीमांमा-प्रधान है; जैसा कि वैशेमाबित करने के लिये अक्षपाद गोतम की सदृश पूर्व
__, मिदमन, मान्तभद्र आदि से अनेक धुरघर ताकिकों द्वारा पक्ष-उत्तरपक्ष न करते हुए भी, उनकी पुष्टिम हेतुओं
किया ..मातविक । और हाफिक ची भारतीय विचाविकाम में का उपन्यास तो बहुधा करता ही है; जब कि वा० याग ग्थान को लिये ( है, इस बात में इनकार नहीं किया जा उमास्वाति अपने एक भी सिद्धान्त की सिद्धिके लिये मकता ।ता भी प्रस्तुत कयन गोगा-शानभाव और भिंदकी अपेक्षा कहीं भी युक्ति, प्रयुक्ति या हेतु नहीं देत । वे अपनी समझने का है। इस एकाध उदाहग्गाम ममझना हो तो तन्वावक्तव्य को स्थापित सिद्धान्त के रूपमें ही, कोई भी मनों पीर उनिपःो यादि को लीजिये । तत्वार्थ के व्यायाकार
घ घा तार्किक हाने दागी और मम्प्रदायभंद में विभक्त होते हुए दलील या हेतु दिये विना अथवा पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष
भी जा चर्च करते हैं और तर्क, वन का प्रयोग करते हैं वह सब किये बिना ही, योगसत्रकार 'पतंजलि' की तरह वणन पथम में स्थापित न सिद्वान्नको ग्पष्ट करने अथवा उसका समर्थन करते चले जाते हैं । उमास्वातिके सत्रों और वैदिक करने क लिये ही हैं। इनमें में किसी व्या व्याकर ने नया विचार दर्शनांके सूत्रों की तुलना करते हुए एक छाप मनकं मन नही किया या श्वेताम्बर-दिगम्बर की तात्विक मान्यतामें कुछ उपर पड़ती है और वह यह कि जैन परम्परा श्रद्धा- भी अन्नर न. डाला। जब कि उपनिषद, गीता और अमल के
व्याव्याकार तर्कवल से यहां तक स्वतन्त्र चर्च करते हैं कि उनके प्रधान है, वह अपने सर्वज्ञवक्तव्यको अक्षरशः स्वीकार
बीच तात्विक मान्यता में पूर्व-पश्चिम-गा अन्तर ग्यदा हो गया है। कर लेती है और उसमें शंका-समाधान का अवकाश इसमें क्या गुगा और क्या दोष यह वक्तव्य नहीं, वक्तव्य केवल नहीं देखती; जिसके परिणामस्वरूप संशोधन, परि- वस्तुस्थिति को रपष्ट करना है। गुगा और दोष सांपत होने में वर्धन और विकास करने योग्य अनेक बुद्धि के विपय दोनों परम्पराओं में हो सकते और नी भी हो सकते हैं ।