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अधूरा हार
अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ३ इन्द्रोऽपि स्तुतबानत्र तयोर्गार्हस्थ्य जीवनम् । चारित्रमेव संसाररोधनं मोक्षसाधनं ॥२७॥ सोऽयं जयकुमारस्तु दीर्घकालं गृहाश्रमे। वन में घूम घूम कर मैंने रंग विरंगे फलो व्यतीत्यमाप्तवान् सौख्यमक्षयंमोक्षसाधितम् ॥२८॥ का संग्रह किया और पहाड़ी के नीचे हरित दुर्वा
[कविता वर्णित कथासार-'हस्तिनागपुरके चंद्र- पर रख कर हार गूंथने लगा। वंशी राजा 'सोमप्रभ' की रानी लक्ष्मीमती' से 'जय- . x x x कुमार' का जन्म हुआ। जयकुमार ने सर्व शास्त्रों में पू
का आकाश असित घन-मालाओं निपुणता प्राप्त की और उसे पिता के जिनदीक्षा ले लेने से आच्छादित हो गया । नाविकगण अपनी अपनी पर राज्यासन मिला । वह पिताकी तरह प्रजाका अच्छी नौका किनारे बाँध कर गिरि-कन्दरात्रों में छिप गये। तरहसे पालन कर रहाथा कि, उसे परुदेव (श्रादिनाथ) मैं अकेला हार गूंथने में निमग्न था। के पुत्र भरत के दिग्विजयको निकलने का समाचार
xxx पर्वत-शृंग तूफ़ान के वेग से हिल गया। धूल से
: मिला । उसने भी भरतके साथ जानेका निश्चय किया। तदनुसार वह दीर्घकाल तक भरतकी साथ रहा और
मेरी आँखें भर गई। सारे फूल प्रवल झकोरों में उसने नागमुखादि शत्रुओं को विजय किया । भरतजी .
। पड़ कर तितर-बितर हो गये। मेरे पास साथ ले जयकुमारके इस रणकौशलसे संतुष्ट हुए और उन्होंने
जाने के लिये केवल अधूरा हार बच रहा।
" उसे अपना सेनापति नियत किया । षट्खण्डको जीत कर भरत चक्रवर्ती जब अपनी राजधानी ( अयोध्या) वंदी का विनोद को लौटे तब उन्होंने जयकुमारको विदा किया । वह अपने नगर पहुँच कर यथेष्ट प्रजाका पालन करने लगा। मरा
मेरी विपंची मधुर गीत नहींगाती । उसकी झंकृति इतनेमें काशीके राजा अकम्पनने अपनी विदी पत्री में वेदना भरी है । प्रकृति की नीरव रंगस्थली में जब 'सुलोचना' का उसकी अनुमतिसे स्वयंवर रचा,जिसमें कभी बैठ कर तारों को छेड़ता हूँ, हृदय-पटल पर प्रायः सभी राजा आए, जयकुमार भी गया और उसी शीतल आँसू की बूंदें ढलक पड़ती हैं। मैं तत्काल के गले में वरमाला पड़ी। इस पर भरतका पत्र 'ई ही बीणा रख देता हूँ। कीर्ति' क्रुद्ध हुआ और उसने जयकुमारसे युद्ध ठाना ।
xxx युद्धमें अर्ककीर्ति को हारना पड़ा और जयकुमारकी
विश्व का वंदी हूँ । जीवन को ज्वाला झुलसा रही पूरी विजय हुई। सो ठीक है, धर्मकी ही सर्वत्र विजय
है। इच्छा होती है दाह से किनारे हो जाऊं होती है, बल तथा वैभवकी नहीं। इसके बाद जयकु
किन्तु पाह, बंदी हूँ-परतंत्र हूँ। इसी
असमर्थताकी धारा में चिन्ता नित्य डुबाना मार अच्छी तरहसे सुख भोगता और सदाचार-द्वारा अपने गार्हस्थ्य जीवनको स्तुत्य बनाता हुमा चिरकाल
चाहती है।
X तक गृहस्थाश्रममें रहा । और अन्तमें उसने मोक्ष पुरु- घबड़ा कर मन बहलाने के लिए फिर वीणा पार्थका साधन करके अक्षय सुखको प्राप्त किया। कता हूँ। मेरी बीणा रोती है- मैं सुनता हूँ। -सम्पादक] यही मेरा विनोद है।
-श्रीजगन्नाथ मिश्र गौर "कमल"
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