________________
तत्वार्थसूत्रकं प्रणेता उमास्वाति
वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६]
के सिवाय किसी भी श्वेताम्बरीय आगम में अथवा दिगम्बरीय प्राचीन प्रन्थोंमें दिखाई नहीं देता । इस अर्थभेदके कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि शब्दों की परिभाषा सिर्फ भाष्य में जुदी घड़ी गई है ।
७ यद्यपि इस समय उपलब्ध भाष्य में ५६ अन्तरद्वीपों का वर्णन है४८ परन्तु इस भाष्यके ऊपर उपलब्ध दोनों टीकाओं के रचयिता श्वेताम्बरीय आचार्य कहते हैं कि भाष्यों में ९६ अन्तरद्वीप दिखाई देते हैं । इस कथनसे ऐसा सूचित होता है कि टीकाकारोंके समय में भाष्यों में ४९ अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ वरित थी । यह वर्णन सभी श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंसे विरुद्ध है। यदि वाः उमास्वाति श्वेताम्बरीय परम्पराके होते तो कभी श्वेताम्बरी आगम आदि ग्रन्थोके बिलकुल विरुद्ध और केवल दिगम्बरीय प्रथमं ही जो मिलता है ऐसा अन्तरद्वीपों का वर्णन करते ही नहीं ।
८ तत्वार्थ भाष्य में जो दूसरे मंहनन का 'अर्ध 'वर्षभनाराच' ऐसा नाम है और पर्याप्तियों की पाँच मंख्या ५१ है वह सामान्य रूप से श्वेताम्बरीय तथा दिगरीय ग्रन्थों की प्रसिद्ध परम्परासे भिन्न है ।
९ दस यतिधर्मों में तपके वर्णन प्रसंग पर भिक्षुकी बारह प्रतिमाओं का वर्णन है। उनमें आठवी, नववीं और दसवीं इन तीन प्रतिमाओं को भाग्य में क्रमशः मात, चौदह और इक्कीस रात्रिके परिमाणवाली कहा है। मायके इस कथन को किसी भी श्वेताम्बरीय सत्रका आधार नहीं । भाग्य की इस परंपरा की अपेक्षा वे
४८ देखा, ३. १५ । ४६ उत्तिकार द्वारा प्रयुक्त 'भाध्येषु' म बहुवचनसे क्या तो भाष्य की प्रतियां ऐसा अर्थ हो और क्या उस समय मिलती टीकाएँ ऐसा हो, या जान पड़ता है । देखो, ८१२।५१ सभी ताम्वरीय ग्रंथों में छह पर्याप्ति की परम्परा है, और वही प्रसिद्ध है । मात्र राजप्रश्नीयसूत्र में १० ८ पर भाषा और मनको एक गिन कर पांच पर्याप्तियों का कथन है । ५२ देखो, ६, ६ ।
५०
૪૨
ताम्बरी आगम की परंपरा जुदी ही है। क्योंकि आ गममें ये तीनों प्रतिमाएँ सात सात रात की परिमारण वाली वर्णित हैं। ऐसा भाग्य के ही टीकाकार कहते हैं, इससे इस विषय में भाष्य और आगम की परंपरा जदी है।
१० पुलाक, बकुश आदि निर्ग्रन्थोंमें श्रत और प्रतिसंवना का निरूपण करते हुए भाष्य में जो कुछ कहा गया है५३ उमे भाष्यके ही टीकाकार श्वेताम्बरीय आगमपरम्परासे भिन्न प्रकार का कह कर आगम परंपरा कैसी है उसे बतलाते हैं । उदाहरण के तौर पर भाष्य में पुलक, कुश और प्रतिसेवनाकुशील को अधिक से अधिक दशपूर्वधर कहा है जब कि आगमें नवपूर्वधर कहा है इत्यादि । दिगम्बर परम्परा के टीकाग्रन्थोंमें यह बात शब्दश: भाष्य के अनुसार ही है 1
११ सत्र अन्त की तथा महत्व की दलील यह है कि यदि बा० उमास्वाति रूढ श्वेतांवरीय अथवा ट दिगंबरीय होते तो चाहे जैसे महत्व का होते हुए भी उनका मूल तत्वार्थ शास्त्र जिस प्रकार प्रथमसे आज तक उभय संप्रदाय को मान्य होता आया है उस प्रकार मान्य न होता और भाष्यमे कहीं कहीं सर्वार्थसिद्धि की तरह विरोधी संप्रदायका घोड़ा बहुत वंदन अवश्य होता । परन्तु ऐसा नहीं है । उदाहरणके तौर पर टूवें अध्याय के प्रथम सत्र की सर्वार्थसिद्धिमे मिध्यादर्शन की व्याख्या करते हुए पूज्यपादने प्रथम तो जैनंतर दर्शनों को मिथ्यादर्शन कहा है और बाद में सम्प्रदायका अभिनिवेश न रोक सकनेसे 'अथवा ' ऐसा कह कर श्वेताम्बर मान्यताओं को भी मिध्यादर्शन कह दिया है। इस स्थल पर माध्यमं श्वेताम्बर
दिगम्बर किसीके विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा गया । मात्र जैन दर्शन का ही पोषक होवे ऐसा सामान्य कथन है।
श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदाय में विरोध का बीज पहलेसे आज तक मुख्य रूपमे यह चला आता है कि भिक्षुको कपड़ा रखना या नहीं रखना; ऐसे प्रबन्न
०३ दा ६, ४० ।