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साबाद, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] जैनियोंका अत्याचार
४३५ भिकारीको धनादिकसे वंचित रखना, यद्यपि, अत्या- देखता हुआ भी आनंदसे हुक्का गड़गड़ाता रहे और बार जरूर है परन्तु जान बूझकर किसीको आत्मला- उसके बचानकी कुछ भी कोशिश न करे तो कहना से वंचित रखना, यह उससे कहीं बढ़कर अत्याचार होगा कि वह महा अपराधी है । जैनी लोग इस बात
मेरा तो, इस विषयमें यहांतक खयाल है कि यह को बराबर स्वीकार करते आए हैं कि मिध्यादृष्टि लोग अत्याचार किसीको जानसे मार डालनेकी अपेक्षा भी अंधे होते हैं उन्हें हित अहित कुछ भी सझ नहीं अधिक है। धनादिक पर पदार्थों का वियोग इतना दुःख- पड़ता-परन्तु जैनियोंके सन्मुख ही लाखों और जनक नहीं हो सकता जितना कि प्रात्मलाभसे वंचित करोड़ों मिथ्यादृष्टि अन्याय,अभक्ष्य और अतत्त्वश्रद्धारहना । जो लोग अपनी आत्माको जानते हैं,अपन स्व- रूपी कुएमें बराबर गिरते रहे तो भी इन मधियों को
पको पहचानते हैं, धर्म क्या और अधर्म क्या इस- उनपर जरा भी दया न आई । इन्होंने अपने मौनव्रतका जिन्हें बोध है, उनको धनादिकका वियोग भी इत- को भंगकर उनके बचाने या निकालनकी कुछ भी चेष्टा ना कष्टकर नहीं होता जितना कि न जानने और न नहीं की। और तो क्या, इनके सामने ही बहुतमे इनपहचानने वालोंको होता है । इसलिए दूसरोंको धमसे के भाइयों (जैनियों) का धर्मधन लूट लिया गया और वंचित रखना उनके लिए घार दुःखोंकी सामग्री तैयार व मिथ्यादृष्टि बना दिये गये; परन्तु फिर भी इनके करना है। क्या इस अत्यचारका भी कहीं ठिकाना है ? कठोर चित्त पर कुछ आघात नहीं पहुँचा। ये बराबर शांक ऐसा महान् अत्याचार करने वाले जैनियांका अपने आनन्द में मस्त रहे । कोई जीया या मरो, इन्होंपाषाणहृदय, दूसरोक दुःखोंका म्मरण ही नहीं किन्तु ने उसकी कुछ परवा नहीं की । बल्कि ये लोग उलटा प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी जग नहीं पसीजा- वश हए और इन्होंने जान बझकर अपने बहुतसे भा
आत्मलाभसे वंचित पापी और मिथ्यादष्टि मनुष्य जै- इयाँका लटेगक मपर्द किया। यदि किमी भाईम कोई निगाके सन्मुख ही अनेक प्रकार के अनर्थ और पापा- अपगध या वाटा आचरण बन गया तो इन्होने उसचरण करके अपनी आत्माओका पतन करत रहे; पर- को अपने में एम निकाल कर फेंक दिया जैमा कि न्तु जैनियोंको उनपर कुछ भी दया नहीं आई और न दधर्मम मक्खीको निकाल कर फेंक देते हैं । इन्होंने दृमरे जीवोंकी रक्षाका ही कुछ खयाल उत्पन्न हुआ। उसको कुछ भी धीर-दिलामा नहीं दिया, न इन्होंने ___ संसारमे ऐसा व्यवहार है कि यदि कोई अधा
अधा उसके ग्वाट आचरणको छुड़ाकर धर्ममें स्थिर करनेकी मनुष्य कहीं चला जा रहा हो और उसके आगे कुआँ कोशिश की और न प्रायश्चित्त आदिम शुद्ध करनेका
आजाय तो देखने वाले उम अंधेको तुरन्त ही माव- कोई यान ही किया। बल्कि उसके माथ बिलकुल धान कर देंगे और अपनी ममम्न शक्तिको, उमे कुॉमें
शत्र-सरीवा व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया।
न गिरनमे बचाने अथवा गिरजाने पर उसके शीघ्र निका
नतीजा इसका यह हुआ कि उसका अपनी मंमारलनेमें लगा देंगे। यदि कोई मनुष्य अंधे आगे कुआँ
यात्राका निर्वाह करने के लिए दूमगंका शरण लेना देखकर भी चपचाप बैठा रहे और उसकी रक्षाका कुछ
पड़ा और वह हमेशाके लिये जैनियोंसे बिछड़ गया। भी उपाय न करे तो वह बहुत पापी और निंद्य समझा जाता है। किसी कविने कहा भी है कि:--
इमम ममझ लीजिए कि जैनियोंने कितना बड़ा अप
राध और अत्याचार किया है-कहाँ तक इन्होंने अपने "जब तु देखें आँखसे, अंधे आगे कूप ।।
.. धर्मका उल्लंघन और कहाँ तक उमके विरुद्ध आचरण तब तेरा चुप बैठना, है निश्चय अघरूप ॥" किया है।
इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य क्सिीको दिनदहाड़े मनष्यका यह धर्म नहीं है कि यदि कोई मनुष्य लुटता हो और दूसरा आदमी उसके इस कृत्यको किसी नदी आदिमें गिरता हो या बहता जाता हो तो