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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८, ९, १० उसको उलटा धक्का दे दिया जावे । और यदि वह अपराध नहीं जिसका प्रायश्चित्त न हो सके । भगव. किनारेके पास भी हो और निकलना भी चाहता हो जिनसेनाचार्य के निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट तो उसको ठोकर मार कर और दूर फेंक दिया जावे, है कि-'यदि किसी मनष्यके कुलमें किसी भी कारणजिससे वह निकलनेके काबिल भी न रहे । बल्कि इसके से कभी कोई दूषण लग गया हो तो वह राजा या विपरीत उसको न गिरने देना या हम्तावलम्बन देकर पंच आदिकी सम्मतिस अपनी कुलशुद्धि कर सकता निकालना ही मनुष्यधर्म कहलाता है। इसी लिए जैनि- है। और यदि उसके पूर्वज-जिन्होंने दोष लगाया योंके यहाँ स्थितिकरण'धर्मका अंग रकवा गया है। हो-दीक्षायोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उस कुलशुद्धि म्वामी समनभद्राचार्य ने 'रत्नकरंड श्रावकचार' में करने वालेका और उसके पत्र पौत्रादिक मंतानका इमका स्वरूप इस प्रकार वर्णन किया है:
या
यज्ञोपवीत संस्कार भी हो सकता है । वह वाक्य
इस प्रकार है :"दर्शनाचरणाद्वापि चलतां धर्मवत्मलैः।।
कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुलं सम्प्राप्तपणम् । पत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते ।" मोपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कलम ॥ __ अर्थात् - जो लोग किसी कारणवश अपने नदास्योपनयाहन्वं पुत्रपौत्रदिसंनतौ । यथार्थ आचरणसे डिगत हो, धर्मसे प्रेम रखने वाले न निषिद्धं हि दीक्षह कुले चेदस्य पूर्वजाः। परुपांको चाहिए कि उनका फिर अपने श्रद्धान और
--आदिपुगगा पर्व ४० । आचरणमें दृढ कर दें । यही स्थितिकरण' अंग कह
- इसमे दम्मों और हिन्दूम मुमनमान या ईमाई लाला है।
बने हुए मनुष्योंकी शुद्धिका खासा अधिकार पाया परन्तु शाक! जनियान यह सब कुछ भुला दिया। जाता है। बल्कि शास्त्रों में उन म्लेच्छों की भी शुद्धिका पिरत को महाग या हस्तावलम्बन दना ता दूर रहा विधान दग्या जाना है जो मलम ही अशुद्ध हैं। आदिइन्होंने उलटा उसको और जारका धक्का दिया । श्र
पराणमें यह उपदेश स्पष्ट शब्दों में दिया गया है कि, द्वान और आचरणस डिगना तो दूसरी बात, यदि प्रजाको बाधा पहुँचानवाले अनक्षर (अनपढ़) म्लेकिमाने रूढियों (आधुनिक जैनियोंके सम्यक चारित्र?) नदीको कुलशद्धि आदिकं द्वारा अपने बना लेने चा के विरुद्ध जरा भी आचरण किया अथवा उनक वि- हि ।' यथा:मद्ध अपना खयाल भी जाहिर किया तो बम उस
स्वदेशऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजावाधाविधायिनः । बेचार की शामत आ गई, और वह झट जैनममाजम १५ अपना अलग जीवन व्यतीत करनेके लिए मजबर किया कुलशुद्धिप्रदानायः स्वसाकुयादुपक्रमः।। १७।। गया ! जैनियों के इस अत्याचार से हजारों जैनी गाटे,
- ग्रादिपुराण पर्व ४२ । दस्स या विनेकया बन गये; लाग्वों अन्यमती हो गये; परन्तु यह मब कुछ होते हुए भी जैनियोंके संकीर्ण जैनियोंका दंग्यते दग्वने मुसलमानी जमानेमें लाखों हृदयन महात्माओंके इन उदार और दयामय उपदेशांको ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जबरन मुसलमान बना लिये ग्रहण नहीं किया। सच भी है, सेरभरके पात्रमें मनभर गये; और इस ज़माने में तो कितने ही ईमाई भी बना कैसे समा सकता है ? अपात्र जैनियोंके हाथ में जैनधर्म लिये गये; परन्तु जैनियों के मंग दिल पर इससे कुछ पड़ जानेसे ही उन्होंने जैनधर्मका गौरव नहीं समझा भी चोट नहीं लगी। इन्होंने आज तक भी उन सबोंके और इमलिए दूसरों पर मनमाना अत्याचार किया है। शुद्ध करनेका-अपने बिछुड़े हुए भाइयोंको फिरसे मैं कहता हूँ कि दूसरोंको धर्म बतलाने या सिखगले लगाने का कोई उपाय नहीं किया। एमा काई लानमें धार्मिकभाव और परोपकारबद्धिको जाने दीजि