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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६]
जैनियोंका अत्याचार
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जैनियोंका अत्याचार
तो जैनी वनस्पतिकायके जीवोंकी भी रक्षा करते यह कभी हो नहीं सकता कि अत्याचार तो करें
हैं, उनके ऊपर अत्याचारके दोपका आगपण दसरे लोग और फल उसका भोगना पड़े जैनिहोते देख बहतसे पाठक चौंकेंगे-परन्तु नहीं, चाकन योंको । जैन फिलासोफी इमको मानने के लिए तैयार की जरूरत नहीं है । वास्तवमें जैनियान घोर अत्याचार
नहीं । यदि थोड़ी देर के लिए उस मनुष्यको भी जिमकिया है और वे अब भी कर रहे हैं । हमारे भाइयोंने
पर अत्याचार किया गया हो, कोई बुरा फल महन अभी तक इस ओर लक्ष्य ही नहीं दिया और न कभी
करना हो अथवा किसी आपत्तिका निशाना बनना पड़े एकान्नमें बैठकर इमपर विचार ही किया । यदि जैनि
तो कहना होगा कि उसने भी ज़रूर अपनी चेष्टा या यांके अत्याचारकी मात्रा बढ़ी हुई न होती तो आज
अपने मन-वचनादिक द्वारा दूसगंके प्रति कोई अत्याजैनियोंका इतना पतन कदापि न होता-जैनियोकी
चारविशेष किया है और वह वग फल उसके ही किमी यह दुर्दशा कभी न होती । जैनियांका ममम्न अभ्युदय
कर्मविशेपका नतीजा है । यही हालनजैनसमाजकी है। नष्ट हो जाना, इनके ज्ञान-विज्ञानका नामशेप रह जाना,
यद्यपि इममें कोई संदेह नहीं कि पिछले समयमें जैनिअपन बल-पराक्रमस जैनियोका हाथ धो बैठना, अपना
यों पर थोड़े बहुत अत्याचार ज़रूर हुए हैं ; परन्तु वे राज्य गँवा देना, धर्मम च्यन और आचारभ्रष्ट हो जाना
अत्याचार जैनियोंकी वर्तमान दशाकं कारण नहीं हो नथा जैनियोंकी संख्याका दिनपदिन कम होन जाना
सकतं । जैनियोंकी वर्तमान अवस्था कदापि उनका फल और जैनियोंका सर्व प्रकारसे नगण्य और निम्तन
न नहीं है । यदि जैनियान उन अत्याचागेको मनुष्य बनहां रहना, यह सब अवश्य ही कुछ अर्थ रखता है- कर मह लिया होता और स्वयं उनसे अधिक प्रत्याइन सबका कोई प्रधान कारण ज़रूर है; और वह चार न किया होना ना ज़रूर था कि यह जैनबारा निगोंका अत्याचार है।
(जनम माज) दृमगंक अत्याचाररूपी ग्वाद(Manur) __ जिस समय हम जैन सिद्धान्तको दंग्वन हैं, जैनि- में और भी हगभग और मर सत्ज़ हाता-खब फलता योकी कर्म-फिलामाफीका अध्ययन करते हैं और साथ और फूलता; परन्तु जैनियोंका एमी मवद्धि हा उत्पन्न ही, जैनियोंकी यह पनितावस्था क्यों ? लौकिक और नहीं हुई । उनके विचार प्राय इतनः मंकीर्ण और म्वापरमार्थिक दोनों प्रकारकी उन्नतिम जैनी इनने पीछे थमय रह हैं कि सदमद्विवेकवती बद्धिको उनके पास क्यो ? इस विषय पर अनमंधानपूर्वक गंभीर भावने फटकनमें भी लज्जा आती थी। अत्याचार और भी गहरा विचार करते हैं तो उस समय हमको मालूम अनक धर्मानुयायियोंको सहन करने पड़े हैं; परन्तु उनहोना है और कहना पड़ता है कि यह सब जैनियोंके में जिन्होंने अपने कर्तव्यपथको नहीं छोड़ा, अपने अपने ही कोका फल है। जो जैसा करता है वह वैसा सामाजिक सुधारको समझा, उन्नतिक मार्गको पहचाना, ही फल पाता है । अवश्य ही जैनियान कुछ ऐसे काम अपनी त्रुटियों को दूर किया, सवको प्रेमकी दृष्टिस किये हैं जिनका कटक फल व अब तक भुगत रहे हैं। देवा और अपने स्वार्थको गौण कर दृमगंका हिनसाधन