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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ६,७ भूल स्वीकार नहीं कर रहे हैं !! उस पत्रके साथमें भेजनेमें और तीसरी भूल दिगम्बरजैन-वाले लेखके आपने अपना कोई संशोधन नहीं भेजा, जिसकी दु- आक्षेप-वाले अंशको लिखनेमें की है । आपके लेग्वों हाई दी जा रही है, यदि भेजते तो ज़रूर छाप तथा पत्रोंको देखनसे हर कोई विचारक आपकी भारी दिया जाता-भले ही उस पर कोई और नोट असावधानीका अनुभव कर सकता है और यह भी जान लगाना पड़ता । पहले अनेकान्त की ४थी किरण में सकता है कि आप दूसरों की बातों को कितने ग़लत पं० सुखलाल तथा बेचरदासजीका एक संशोधन प्रका- रूपमें प्रस्तुत करते हैं । इतनी भारी असावधानी रखत शित हुआ है, और इस लिये यह नहीं कहा जा सकता हुए भी आप ऐतिहासिक लेखोंके लिखने अथवा उन कि संपादक अपनी टिप्पणियों अथवा लेखोंके विरुद्ध पर विचार करनेका साहस करते हैं, यह बड़े ही किसी का संशोधन नहीं छापता । बाक़ी सम्पादककी आश्चर्य की बात है । अस्तु ।
ओरसे जिस किसी संशोधनक निकाले जानकी प्रेरणा इस संपर्ण कथन, विवेचन अथवा दिग्दर्शन पर कीगई है उसे उसके औचित्य-विचार पर छा डागया है। से सहदय पाठक सहज ही में यह नतीजा निकाल उसने लेख के छापनेमें अपनी किसी ग़लतीका अनुभव सकते हैं कि बाब साहबका आक्षेप कितना निःसार, नहीं किया और इसलिये किसी संशोधन के देने की निर्मल, मिथ्या अथवा बेबनयाद है, और इस लिये ज़रूरत नहीं समझी। फिर उसपर 'दिगम्बर जैन' वाले
उसके आधार पर उन्होंने 'दिगम्बर जैन' में अपने लेखमें आपत्ति कैसी ? और इस लेख में अपने पूर्वपत्रों
" लेग्य को भेजने के लिये जो बाध्य होना लिया के विरुद्ध लिखने का साहस कैसा !!
है वह समचित तथा मान्य किये जाने के योग्य नहीं । एक बात और भी बतला देने की है और वह यह
: मैं तो उस महज शर्मसी उतारने के लिये ऊपरी तथा कि पहले पत्रके विरुद्ध दूसरे पत्र और आक्षेप-वाले लेख में मन
नुमाइशी कारण समझता हूँ-भीतरी कारण नैतिक और तदनुसार उस "नाट" नामक लेख को ठीक कर
बलका अभाव जान पड़ता है । मालूम होता है संपा
दकीय नोटोंक भयस ही उन्होंने कहीं यह मार्ग अख्तिलेनेकी जो नई बात उठाईगई है उससे लेग्वक महाशय
यार किया है, जो ऐतिहामिक क्षेत्र में काम करने वाले लेख के छापने-न-छापनेके विषयमें क्या नतीजा निकालना चाहते हैं वह कुछ समझमें नहीं आता ! सन्
तथा मत्यका निर्णय चाहने वालोंको शोभा नहीं देता। १९१८ के उस पाठको तो मैंने खुद ही लेग्वका संपा
वे यदि अपना प्रतिवादात्मक लेख 'अनेकान्त' को दन करते हुए देख लिया था और उसके अनुसार
भेजते और वह युक्तिपुरस्सर, सौम्य तथा शिष्ट भाषामें जहाँ कहीं पहले पाठको देते हुए आपके लिखने में कुछ
लिखा होता तो 'अनेकान्त' को उसके छापने में कुछ भूल हुई थी उसे सुधार भी दिया था। पर उससे तो
9 भी उम्र न होता। आपके जिस दूसरे लेख पर मैंने लेखके छापने या न छापनेका प्रश्न कोई हल नहीं कुछ नोट दिये थे उसके विरोध में एक विस्तत लेख होता। इससे मालूम होता है कि लेखक महाशय इतने
' मुनि कल्याणविजयजीका इसी संयुक्त किरणमें प्रकाशित असावधान हैं कि वे अभी तकभी अपनी भलको नहीं हो रहा है, आप चाहें तो उस पर और मेरे नोटों पर भी समझ रहे हैं यह भी नहीं समझ रहे हैं कि पहले एक साथ ही कोई प्रतिवादात्मक लेख 'अनेकान्त' को हमने क्या लिखा और अब क्या लिख रहे हैं और
भेज सकते हैं । रस पर तब काफी विचार हो जायगा।
म बराबर भूल पर भूल करते चले जाते हैं । पहली भूल
-सम्पादक 'अनेकान्त' आपने पहला लेख लिखने में की,दूसरीभूल दूसरे पत्रके