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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ८, ९, १० लग स्वरूप दिया है और इस तरह पद्मावतीको सप्त स्त्री-गौ तथा मुनिके घातका जो पाप लगता है वह तुमरूप धारिणी प्रतिपादित किया है। वे मातों रूप इम का लगेगा, ऐसा शाप देकर गुरुदेवके सन्मुख मंत्रप्रकार हैं :
वादी दूसरंको मंत्र समर्पित करे।' १ जिसके चार हाथों में क्रमशः पाश, फल,
___'कामचाण्डालीकल्प' में भी मंत्र देनेके विषयमें वरद तथा अंकुश हैं, कमलका आसन है, तीन इसी प्रकारकी विज्ञापना की गई है । इस ग्रंथमें ? नत्र हैं और रक्त पष्पकी समान जिमकं शरीर- माधक, २ देवीका आराधन, ३ अशेषजनवशीकरण की आभा है वह पद्मा २ जिसके हाथों में पाश, ४ यंत्र तंत्र और ५ ज्वालागर्दभलक्षण नामके पाँच वन, फल तथा कमल हैं वह बानला: ३ जिसके हा- अधिकार हैं और कामचण्डाली की स्तुति करते हए थोंमें शंख, पद्म, अभया तथा वरद हैं और प्रभा अरुण उमका म्वरूप इस प्रकार दिया है:है वह हरिताः ४ जिमके हाथों में पाश, अंकुश, भपिताभग्णः सर्वैर्मुक्तकशा निरम्परा । कमल तथा अक्षमाला है, और जो हम वाहिनी, पातु मां कामचाण्डाली कृष्णवर्णा चतुर्भजा ॥२ अमण प्रभाको लिये हुए तथा जटामें बाल चंद्रमाम फलकांचकलशकरा शान्पलिदण्डाद्धमुरगोपेना । मंडित है वह नित्या. ५ जिमकी आठ भजाग क्रम- जयतात त्रिभवनवन्या जगति श्रीकामचाण्डाली ३ शः शल, चक्र, कशा, कमल, चाप, बागा, फल, अकुश
अर्थात-जा मब आभूषणोंसे भूषित है, वस्त्रर
- III म शोभित है और जो कुंकुम प्रभाको लिये हुए है वह नियमिक
हित नग्न है, सिरके बाल जिसके खुले हुए हैं वह त्रिपुरा: ६ जिसके हाथोंमें शंग्व, पद्म, फल तथा कम
श्यामवर्णा चतुर्भुजा कामचण्डाली मेरी रक्षा करो। ल हैं, बन्धक पुष्पकी समान जिसकी भा है और
जिसके हाथों में फल, कांच ( ? ) कलश हैं, जो कुक्कुट त मा मप जिसका वाहन है वह काममाधनी, शाल्मलिदण्डको लिये हुए हैं और सर्पस युक्त है वह ७ और जिसकी भजाएँ क्रमशः पाश,चक्र,धनुष,बाण, त्रिभवनवन्दनीया कामदएडाली देवी जयवंत हो । वेट, वन, फल, कमलसं शोभित हैं, जो इन्द्र गांपकी मल्लिपणाचार्यकं प्रन्यांसे लगभग एक शताब्दी श्राभाको लिय हुए है और जिसके तीन नेत्र है वह पहलेका बना हुआ 'ज्यालिनीमन' नामका मंत्रशास्त्र त्रिपुरभैरवी नामकी पद्मावती है।
है, जिसे 'ज्वालिनीकल्प और ज्वालिनीमन्त्रवाद' ग्रंथके अंत में मंत्रदानविधिको बतलाते हुए लिग्वा भी कहते हैं-संधियों में सर्वत्र 'ज्वालिनीमत' नामका है कि हमने यह गुरुपरम्पगमे आया हुआ मंत्र अग्नि, ही उल्लेख है। यह ग्रन्थ शक संवत् ८६१ ( वि०सं० मर्य,चंद्रमा, तारों, आकाश और पर्वतोंकी साक्षी करकं ५९६)के अतीत होने पर अक्षय तृतीया (वैशाख शु०३) आपको दिया है आप भी इस किसीसम्यक्त्वरहित पुरु- के दिन मान्यग्वेट गेजधानीमें, जहाँ श्रीकृष्णराजका पको न देवें, किन्तु जिनधर्म तथा गुरुजनोंकी भक्तिस युक्त राज्य प्रवर्तमान था, बन कर समाप्त हुआ है, और पुरुषको ही देना चाहिये, यदि तुम किसी लाभके वश इसकी श्लोकसंख्या ५०० है, जैसा कि इसके निम्न या स्नेहसे किसी अन्य धर्मके भक्त का दोगे तो बाल- अन्तिम पद्योंम प्रकट है :