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अनकान्त
वर्ष १, किरण ६.५
विरोध की मूल बातके संबंधमें सूत्र वाभाष्यमें वा० उत्तर सुगम है और वह यह है कि जिन प्रबल मनभेद उमाम्बाति कुछ भी स्पष्ट नहीं कहते।साधओंकी बाईस और विरोध की बातों के कारण एक पक्ष जुदा पड़ा परीपाहों को गिनाते हए वे 'नग्नत्व' परीषह को आगम और जो आगे जाकर दिगम्बर रूपसे रूढ हो गया वे के अनसार गिनाते हैं, परन्तु 'नग्नत्व' का अभिप्राय बातें प्रथमसे ही वाचक वंशके श्रुतमें थी और वे मन क्या ? इस संबंधमें भाष्य तकमें कुछ भी कहते नहीं। परंपरा की होकर श्वेताम्बर पक्षके साथ अधिक ठीक जब कि भाप्य पर की टीकाओंमें श्वेतांबर आचार्य बैठती थी; इसीसे एक बार तटस्थ रहने वाला भी यह भिक्षुकोंके वस्त्र धारण करने संबंधी स्वसम्मत मर्यादा वाचकवंश श्वेताम्बर पट्टावली में दाखिल हो गया का विस्तृत वर्णन देत हैं और इसी 'नग्नत्व' परीषद और वह कभी तटस्थ था यह बात ही भला दी गई। के ऊपर लिखते हुए दिगंबरीय टीकाकार अपने को श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने माथ कोई खास विगंध अभीष्ट ऐसे बिलकुल नग्न रहनके अर्थ को स्पष्ट करते है। निर्विवाद श्वेतांबरीय और दिगंबरीय प्राचयों की वर्ग यापनीयतन्त्र' या 'यापनीय संघ' के नामसं प्रसिद्ध है । इस गाय टीकााम जो मंप्रदाय विरोध स्पप्रदिवलाई देता है कितने ही वाद्य आचार दिगम्बर सम्प्रदायसे मिलतेपाते हैं-प्रथन. वह सत्र या भाष्य तकमें नहीं है। किसी भी एक र यह भी नाम रहता है इत्यादि। और इसके कितने हीधामिक सिदान्न संप्रदायमें पडनके बाद उस संप्रदायक अभिनिवेशी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मिलते हैं-अर्थत, केवलज्ञानी भी अपन पानावरण वश न हो कर जो तत्त्वार्थ लिया गया
समान अनासक्तभावंम भोजन लेते हैं और स्त्रियां भी स्त्रीशरीर होता तो वह उस संप्रदायमें कभी प्रमाण रूप नहीं।
ही निव गा की अधिकारिगा दी मकती हैं इत्यादि । एक तरहंस दम्य माना जाना, यह बात ऐमी है जिसे संप्रदायोंके इति
जाय तो यह वा लगभग तटग्स्थ जमा है। अब यह वा दक्षिण हास जानने वाले महज ही समझ सकते हैं।
हिन्दरतान में था तब दिगम्बर पथक कर गुरु अपनी सम्प्रदाय । मारांश पट्टावलियों में आए हावाचक वशसचक लागों का कहते थे कि इन यापनीयेमि सावधान रहना। ये ना अन्दा
से श्वेताम्बरयों जमे हैं और मात्र बाहर में ही दिगम्बी लगते हैं। उल्लेखस, उमाम्बानिकी प्रशम्निमें सबके माथ मंयक वा
जब वलभी में मेवइ-ताट-सघ उम्पन्न हा तब ये भी उसीम चक' पदके विशपणाने. पथग में होने वाली वाचनाके
निकले हैं। और वताम्बा पथक कारगुम अपने मप्रदायक लागे' अपसर अनयोगधर किदिलाचार्य के इतिहासम.
को कहते थे कि. 'इस यापनीय मतम सावधान हिया--यह तो ख. तथा इम समय विद्यामान आगमपाठमें अनयांगधर
दिगम्बरीय है परन्तु हमें ठगने के लिये थाड़ी थोड़ी बातें हमा नागाजन के पाठन्तरों की चली आई नोंध (याद
मान्यतानुमार कहता है।' भले प्रकर विव रिये तो यह पक्ष जैसे रूट दाश्त)से, और अन्त में ऊपर की ११ दलाली से ऐमा दिगम्बर न था बसेरू, श्वेताम्बर भी नीं था। यह तो तटस्थरूम मानने के लिये जी लन वाता है कि 'वाचक' नामका से रहने वाला और उपयोगी मान्यता नोंक मानने वाला एक मध्यस्थ • एक विशिष्ट विद्याप्रिय वर्ग५५ तटस्थरूपमं चला आता वर्ग था । इस सम्बन्धमें डा. ल्युडर्पने जो लिखा है वह बांचने था और उसी वंशमं उमास्वाति हए हैं।
योग्य है। उसके लिये देखो, एपिग्रेफिका इंडिका वो०४ पृ०३३८ ऐसा होते हुए भी उस वंशको नथा उस वंश की अन्तिम पैरेग्राफ़ । तथा हर्नल-संपादित दिगम्बीय पट्टावली; इंडिउचनागर जैसी शाखाको श्वेताम्बरीय पट्टावली में यन ऐटिक्वेरी वो०२१ पृ०६७ फुटनोट १६, १७ और एपिग्रेफिक स्थान मिला और दिगम्बरोंने अपनी पट्टावली में उन्हें काटिका वो०१२ प्रस्तावना पृ० ५ पैरेग्राफ पहला दूसरा । स्थान नहीं दिया, इसका क्या कारण ? इस प्रश्नका जिस प्रकार यह वर्ग तटस्थ था उसी प्रकार यह वाचक वर्ग भी ५४, देखा, ६६,
तटस्थ हो, इसे वेताम्बर या दिगम्बर किसी की पर्वह न हो, मात्र ५५ प्राचीन परम्परामें ऐसे कितने ही विद्याप्रिय तथा तटस्थ सत्य और सदाचारको मुख्य रख कर इस वंशकी परम्परा चलती हो, बोकी पत थोड़ी याददारत रक्खी गई है। ऐसे वर्गामें का एक ऐसा इन उमास्वाति वाचककी कृति पर से समझा जा सकता है।