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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ६, विशेषण देकर उनकी खास विशिष्टता सूचित करते हैं। कि तत्त्वार्थसूत्रमें पहले पाँच नय बता कर पश्चान
वाचक उमास्वाति दिगम्बर तथा शेताम्बर इन दो पाँचवें नयके तीन भेद किये गये हैं और इन तीन भेदी विरोधी पक्षोंसे बिलकुल तटस्थ ऐसी एक पूर्व कालीन में भी जो 'सांप्रत' ऐसा नाम है वह तत्वार्थके सिवाय जैन परम्पगमें हुए थे, इस आशय की ऊपरकी कल्प. अन्यत्र कहीं भी नहीं। यद्यपि तात्विक दृष्टि से तत्वार्थना जिन बातों को लेकर मुझे हुई है वे बातें संक्षेपमें गत और आगमगत नयोंके मन्तव्यमें भेद नहीं, नां इस प्रकार हैं:
भी विभाग और नामके विषयमें तत्वार्थ की परम्परा १ श्वेताम्बरीय आगम आदि सभी प्रन्थों में नव श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओंसे स्पष्टतया तत्त्व गिनाये गये हैं जब कि तत्त्वार्थसत्रमें सात गिना जदी पड़ती है। कर४१ सातमें ही नवका समावेश किया है । यह तत्व- ३ श्रावकों के बारह व्रतोंके वर्णनमें तत्वार्थसूत्रका मंबंधी सात संख्याकी परम्परा श्वेताम्बर प्रन्थोंसे जदी क्रम४४ श्वेताम्बरीय समग्र प्रन्योंसे निगला है, तत्वार्थ पड़ती है । इसी प्रकार दिगम्बरीय कुंदकुन्दके प्रन्थोंसे में सातवाँ 'देशवत' और ग्यारहवाँ 'उपभोग परिभोगभी भिन्न पड़ती है।
व्रत' गिनाया गया है जब कि श्वेताम्बरीय सभी ग्रन्थों • श्वेताम्बरीय किसीभी आगम अथवा दूसरं ग्रंथ में यह सातवॉ व्रत 'देशावकाशिक' नामके दसवें व्रतमनयका जिस प्रकारका विभाग नज़र पड़ता है उसकी रूपसे और ग्यारहवें 'उपभोगपरिभोगवत' को सातव अपेक्षा बिलकुल जुदी ही प्रकार का विभाग तत्वार्थसत्र व्रतरूपसे वर्णन किया गया है, इसमें सिर्फ क्रमका ही में पाया जाता है । आगम और आगमानमार्ग नि- परम्पराभेद है, तात्विक भेद कुछ भी नहीं । यक्ति श्रादि ग्रन्थोमें सात नय सीधे तौर पर४३ कहे तत्वार्थसत्र में जो पाप और पुण्य प्रकृतियोंका गये हैं । सिद्धसेन दिवाकर छह नय कहते हैं । जब विभाग है"५ वह इस समय उपलब्ध किसी भी श्व
" ४१ देवा. १. ४ तत्त्वार्थस्त्रमें तत्त्वा की मख्या सात है। ताम्बरीय या दिगम्बरीय परम्परामें नहीं । तत्वार्थसूत्रमे तब प्रशमरतिमे-कारिका १८६ में-यह सव्या नव दी है । एक पुरुष वेद, हास्य, रनि और सम्यक्त्व मोहनीय इन चारका ही कदा जुदा जुदा ग्रथामे दो जुदी जुदी सव्या को बताये। पण्य प्रकृतियोमें गिनाया है जब कि सभी श्वेताम्बरीय यह एक सवाल है । परन्तु यदि दूसरे तौर पर दानां ग्रथोंके एक ही तथा दिगम्बरीय ग्रन्थों की परम्पगमें ऐसा नहीं है। कर्तक होने का प्रमाण मिलता हो तो इस विरोधगभिंत सवालका ५ तपके एक भेदरूप प्रायश्चित्तके नव भेद तत्वाथ समाधान दुष्कर नी । एक ग्रन्थों प्रसिद्धि के अनुसार नव तन्व बतलाए हों और दूसरे ग्रन्थम उसी ग्रन्थकारने विचार कर मात सध्या के मूल सत्र में ही हैं, जब कि पुराने श्वेताम्बरीय डाल कर अपना व्यक्तित्व दिखाया हो ऐसा बनना सवित है।बतम अगमोंमें इसके दश भेद ४७ कह गये हैं। . अथकार अपनी जुनी जुदी कृतियामे एक ही वस्तु को अनेक रूप से ६ अ०१ स०८ के भाष्यमें सम्यग्दर्शन और सम्यग् ? प्रतिपादन करते हुए पहलेसे देखे जाते हैं। ४२ देखो. १, ३४-३५
लिगत सम्यक्त्व ऐसा किया गया है । ऐसा अर्थभेद तत्वार्थ ४३ 'सीधे तौर पर इस लिये कि पांच नकों का प्रकारांतरसे निकि कथन है ही । (विशेशावश्यक भाष्य गाथा २२६४) यह ४४ देखो ७, १६ । ४५ देखो, ८, २६ । ४६ देखा. . 'प्रकारान्तर' तत्वार्थमे भाई हुई परम्परा का होवे ऐसा संभव है। २२ । ४७ उत्तराध्ययन अध्ययन ३० गाथा ३१ ।