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वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति
३९९ ममता, उसके पाठभेदों तथा उनसे सम्बन्ध रखने का काम करने वाला यथार्थ नामधारी विशिष्ट वर्ग वाली कल्पना को सँभालता और शब्द तथा अर्थ मे था । इस वर्गमें श्रुताभ्यासके विना कोई दाखिल नहीं पठन-पाठन-द्वारा अपने श्रुतका विस्तार करता था। हो सकता था । आजकल जैसे पंन्यास,गणी, उपाध्याय यही वर्ग वाचक४० रूपसे प्रसिद्ध हुआ । इसी कारण और आचार्यकी पदवी श्रुतके अभ्यास विना भी प्राप्त मे इसे पट्टावलीमें वाचकवंश कहा गया हो ऐसा जान करनी आसान है वैसा उस वर्गमें दाखिल होनेके लिये पड़ता है। प्रत्येक साधका काम चाहे वह सामान्य नहीं था। वाचकवंशमें दाखिल होनेका अभिप्राय श्रत माध हो या आचार्य-उपाध्याय हो, शास्त्र के पढ़ने का विशिष्ट अभ्यास और उसके प्रचारका काम करना पढ़ानका तो है ही; ऐसी स्थितिमें पट्टावलीमें जो एक ही था। इसके परिणामस्वरूप वाचकपदधारी माधु नये. जदे वाचकवंशका निर्देश आता है और अमुक ही नये गन्थों की रचना करनेकी सामर्थ्य गम्यते थे और श्राचयों के उस वंशमें होने का वर्णन है वह इस बात अपने समय में अपने इधर उधर जो विविध दार्शनिक को सचित करता है कि वाचकवंशके नामसे उल्लेखित विचारमरणियाँ बह रही थीं उनका और विविध अमुक वर्ग कोई सामान्य साधूवर्ग जमा नहीं था, शास्त्रों का अभ्याम भी करते थे; इतना ही नहीं किन्तु बल्कि वह एक श्रुतसंरक्षक और श्रुतक पठन-पाठन वे प्राकृत भाषाके रूढिबद्ध किलेको तोड़कर उम ममा
.. पठन-पाठनमें ही मुव्यरूपमे पायगा एक ऐसा वाचक- की दार्शनिकप्रिय संस्कृत जैमी भाषाओंको मीम्बनेकी + था, इस कल्पना की पुष्टि, वाचकवंश को नमम्सार करने वाली प्रेरणा करतं. और अपने को विरासत में मिला हा मावश्यकनिक्ति की एक गाथा दी जा सकती है.----
ज्ञान जैनेनर तत्वज्ञोंके गाह्य बन उसके लिये विद्वप्रिय "एक्कारस वि गणहरे पवयए पवयणस्स वंदामि। मंक्रत जैसी भाषामें गन्ध भी लिम्वत थे । इमवाचकमव्वं गणहरवंसं वायगवंसं पवयणं च ॥" वाचकका अर्थ पाठक और उपाध्याय है। पांच परमेष्टिमें चौथा वंश के विद्वान माधुओंको पक्षापनी, गम्छभेद और द उपाध्यायका है । वास्तवमें उपाध्याय पदका महत्व उसके शास्त्र- बिलकुल तुच्छ-जैसी कर्मकांड-विषयक विरोधकी बातों 'नगा और प्रचारके गंभीर कर्तव्य मे सिद्ध हुआ है, न कि मात्र में रम नहीं था ; उनका मुख्य रस शास्वचिंतन, शास्त्रउपाध्याय-पदवीके कर्तव्यविहीन भागेपणा मे । यह बात उक्त गाथा संरक्षण, शास्त्र निर्माण और शास्त्रप्रवारकी तरफ ही म मुक्ति होती है।
था। ऐसे वाचकवंशमें, जिस दिगम्बरपने की कोई इसी अभिप्राय की पुष्टि काने वाला एक स्पष्ट उख मावश्यक पूर्णिमें पाया जाता है, उमर्ने गाधरश और वाचकश इन पक्ष न थी अथवा श्वेतान्बर कहलाने का कुछ भी मोह ?' का निईश है और वाचकांशकी उसमें व्याव्या दी है कि वाचक- न था, उमास्वाति हुग हों ऐसा मालूम होता है । इमकी वश अर्थत् वह जिसने परम्परासे सामायिक आदि अर्थ और प्रथ पुष्टिमें यह भी जान लेना चाहिये कि उमास्वाति अपने
चाया (पढ़ाया) है । इस घूर्णिका पाठ इस प्रकर है:- दीक्षागरू, विद्यागर और दीक्षा तथा विद्याके प्रगुरु ___ "सव्वं गणहरवंसं अजसुहम्मे० थेरावलिया वा इन सब को 'वाचक' रूपसे ही उल्लेखित करते हैं, जेहिं जाव अम्हं सामाइयमादीयं वादितं । वायगबंसो णाम जेहि परंपरएणं अत्थो गंथो य वादितो अन्नो इतना ही नहीं, किन्तु उन सब प्रगुरुओं को 'वाचक गणहर वंसो अन्नो य वायगवंसो तेण पत्तेयं क्रियते। मुख्य' तथा 'महा वाचक' रूपसे उल्लेखित करते हैं,
(पृ०८६) और अपने दीक्षागुरु को 'एकादश-अंगधारक' ऐसा