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बैशाख, ज्येष्ठ, वोरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति
३५७ यह वस्तुस्थिति सूत्र और भाष्यके एक कर्तक होने नागर शाखाके होनेका दिगम्बर सम्प्रदायमें एक भी की चिरकालीन मान्यताको सत्य ठहराती है । जहाँ मूल प्रमाण कहीं नहीं पाया जाता । और टीका के कर्ता जुदे होते हैं वहाँ तत्वज्ञान-विषयक
२ सूत्रमें ३० प्रथम कथनानुसार बारह स्वोंका प्रतिष्ठित तथा अनेक सम्प्रदायों में मान्य हुए गन्थों में ,
__ भाष्यमें वर्णन है, यह मान्यता दिगम्बर सम्प्रदाय को ऊपर जैसी वस्तु स्थिति नहीं होती । उदाहरण के तौर पर वैदिक दर्शनमें प्रतिष्ठित 'ब्रह्मसूत्र' प्रन्थको लीजिये,
- इष्ट नहीं ३१ । 'काल' किसीके मतसे वास्तविक द्रव्य यदि इसका ही कर्ता खद व्याख्याकार होता तो इसके है३२ ऐसा सूत्र और उसके भाष्यका वर्णन दिगम्बरीय भाग्यमें आज जो शब्दोको खींचातानी, अर्थक विकल्प पक्ष३३ के विरुद्ध है। केवली में ३४ ग्यारह परिषह होने
और अर्थका संदिग्धपना तथा सत्रका पाठभेद दिखलाई की मत्र और भाष्यगत सीधी मान्यता तथा पुलाक पड़ता है वह कदापि न होता । इसी तरह तत्वार्थसूत्र आदि निग्रंथों में द्रव्यलिंग के विकल्प की और सिद्धा के प्रणेताने ही यदि सर्वार्थसिद्धि. राजवानिक और में लिंगद्वार का भाष्यगत वक्तव्य दिगम्बर परंपरा मे श्लोकवार्तिक आदि कोई व्याव्या लिखी होती तो उलटा है। उनमें जो अर्थकी खींचातानी, शब्द की नोड़मरोड़,
२ भाष्यमे केवलज्ञान के पश्चात केवला क दूमरा अध्याहार, अर्थका संदिग्धपना और पाठभेद-८ दिखाई
३० देखो ४, ३ और८२० का भाष्य । दत हैं वे कभी न हात । यह वस्तुस्थिति निश्चितरूपम
११ दवा . १ की सर्वामिद्धि । परन्तु जन जगत' म ।
अङ्ग २ में पृ. १२ पर प्रकट हा लेख में मालूम होता है कि एककत क मूल तथा टीका वाले ग्रंथोंको देखनसे ठीक
दिगम्बरीय प्राचीन ग्रन्थों में वारह कन्प होने का कथन है । ये ही समनी जा सकती है। इतनी चर्चा मूल तथा भाष्यका
बारह कल्प मोलह स्वर्गरूप वर्गान किये गये हैं। इसमें ममलमें कर्ता एक होनेकी मान्यताकी निश्चित भूमिका पर हमें
बारह की ही मच्या थी और बादको किपी ममय मोलह की मन्या ना कर छोड़ देती है।
दिगम्बीय ग्रंथांमें पाई है। ___ मूल और भाष्यके कर्ता एक ही हैं, यह निश्चय १२ दवा , ३८ दम्वा .. ३. । ३४ देखा., १ इस प्रश्नके हल करने में बहु उपयोगी है कि वे किम ५. तुलना करा, ४६ पोर१०,७के भाष्यकी इन्हीं सूत्रों परम्परा के थे ? उमास्वाति दिगम्बरपरंपरा नहीं थे की सर्वार्थसिद्धि के साथ । यहां पर यह प्रश्न होगा कि १०, की सर्वार्थऐसा निश्चय करने के लिये नीचेकी दलीलें काफी हैं- मिद्धिमें लिङ्ग और तीर्थद्वारकी विचारणाके प्रसगपर जैनदृष्टिके अनुकूल १ प्रशस्तिमें सचिन की हुई उच्चनागर शाखा या मे भाष्यके वक्तव्य को बदल कर उसके स्थान पर रूढ दिगम्बरीय
व-पोषक अर्थ किया गया है । तो फिर,४७की सर्वार्थसिद्धि में २८. उदाहरणांक तौर पर देखा, सर्वार्थसिद्धि-"चरमहा
पलाक प्रादि लिङ्गद्वार का विचार काते हुए वेसा क्यों नहीं किया इतिवापाठः",५३ । “अथवा एकादश जिनेन सन्ती मोरम, दिगम्बरीयत्वक विरुद्ध जाने वाले भाष्यक वक्तव्य कामति वाक्यशेषः कल्पनीयः मोपकारत्वात् सूत्राणम" क्षरशः कसे लिया गया है ! इसका उनर यही जान पड़ता है कि ५, ११ और "लिंगेन केन सिद्धिः ? अवेदत्वेन त्रिभ्यां मिद्रोंमें लिङ्गद्वार की विचारणाम परिवर्तन किया जा सकता था इसम वाटेश्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः पुंलिंगेनेव अथवा भष्य को छोड़ का परिवर्तन कर दिया । परन्तु पुलाक मादिने द्रव्यनिर्ग्रन्थलिंगेन सगन्थलिंगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्ष- लिंगके विचार संग पर दूसरा कोई परिवर्तन शक्य न था, इससे या" १०, ९।
भाष्य काही वक्तव्य अक्षरशः रक्खा गया । यदि किसी भी तरह २६. उपलब्ध पस्कृत वाङ्मय को देखते हुए मूलकारने ही परिवर्तन शक्य जान पड़ता तो पूज्यपाद न त अन्तमें मकन देव मूल सुत्रके उपर भाष्य लिखा हो ऐसा यह प्रथम ही उदाहरण है। क्या उस परिवर्तन को न करते ।