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अनेकान्त
वर्ष १ किरण ६,७ विषयमें ऐसे ही भ्रमपूर्ण उद्गार प्रकट किये हैं। मि० रहे। उनके उपदेशानुसार अन्य असंख्य मनुष्यों ने नरीमान एक अच्छे ओरिएन्टल स्कालर हैं, और उन आजतक इस तस्वका यथार्थ पालन किया है; परन्नु को जैन-माहित्य तथा जैन-विद्वाकोंका कुछ परिचय किसीको आत्मघात करनेका काम नहीं पड़ा । इम भी मालम देता है । जैनधर्मस परिचत और पुरातन लिए यह बात तो सर्वानुभव-सिद्ध-जैसी है कि जैनी निहाममे अभिज्ञ विद्वानोंके मुँहस जब ऐसे अवि- अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है और इसका पालन करने धारित उद्गार सुनाई देते हैं, तब साधारण मनुष्योके के लिए आत्मघातकी भी कोई आवश्यकता नहीं है। मनमें चक्न प्रकारकी भ्रांतिका ठस जाना माहजिक है। यह विचार तो वैसा ही है जैसा कि महात्मा गांधीजीन इसलिए हम यहाँ पर मंक्षेपमें बाज जैनधर्मकी अहिंसा देशके उद्धारके निमित्त जब असहयोगकी योजना के बारे में जो उक्त प्रकारकी भ्रांतियाँ जनममाजमें उद्घोषित की, तब अनेक विद्वान और नेता कहलाने फैली हुई है उनका मिध्यापन दिखात हैं। वाले मनुष्योंने उनकी इस योजनाको अव्यवहार्य और
जैनी महिमाकं विषयमें पहला आक्षेप यह किया राष्ट्रनाशक बतानेको बड़ी लम्बी लम्बी बातें की थी जाता है कि-जैनधर्म-प्रवर्तकांन अहिमाकी मर्यादा और जनताको उससे सावधान रहनकी हिदायत की इतनी लम्बी और इतनी विस्तृत बना दी है कि जिससे थी। परन्तु अनुभव और आचरणसे यह अब निम्सलगभग वह अव्यवहार्य की कोटि में जा पहुँची है। न्देह सिद्ध हो गया कि असहयोगकी योजना न तो अयदि कोई इस अहिंसाका पूर्णम्पस पालन करना चाहं व्यवहार्य ही है और न राष्ट्रनाशक ही । हाँ, जो अपने तो उसे अपनी ममम जीवन-क्रियायें बन्द करनी होंगी स्वार्थका भोग देने के लिए तैयार नहीं, उनके लिए ये और तिवट होकर बहत्याग करना होगा। जीवन-व्य- दोनों बातें अवश्य अव्यवहार्य हैं, इसमें कोई सन्देह वहारको चालू रखना और इस महिंसाका पालन भी नहीं है । आत्मा या राष्ट्रका उद्धार बिना स्वार्थ-त्याग करना, ये. दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं। अतः इस अहिंसा और सुख-परिहारके कभी नहीं होता । राष्ट्रको स्वतन्त्र के पालनका मतलब प्रात्मपात करना है; इत्यादि। और सुखी बनाने के लिए जैसे सर्वस्व-अपर्णकी भाव. अपपि इसमें कोई शक नहीं कि जैनी अहिंसाकी श्यकता है वैसे ही आत्माको माधि-व्याधि-उपाधिसे मर्यादा बहुत ही विस्तृत है और इसलिए उसका पूर्ण स्वतन्त्र और दुःख-द्वंद्वसे निर्मुक्त बनाने के लिए भी सर्व पालन करना सबके लिये बहुत ही कठिन है, तथापि मायिक सुखोंके बलिदान कर देनेकी आवश्यकता है। यह सर्वथा अव्यवहार्य या प्रात्मघातक है, इस कथनमें इसलिए जो "मुमुक्षु" (बन्धनोंसे मुक्त होनेकी इच्छा किचित् भी तथ्य नहीं है। न तो यह अव्यवहार्य ही है रखने वाला) है-राष्ट्र और आत्माके उद्धारका इच्छुक
और न प्रात्मपातक ही। यह बात तो सब कोई स्वी- है, उसे तो यह जैनी अहिंसा कभी भी अव्यवहार्य या कारते और मानते हैं कि, इस महिंसा-तत्वके प्रवर्तको पात्मनाशक नहीं मालूम देगी-स्वार्थ-लोलुप और नं इसका भाषरण अपने जीवन में पूर्ण रूपसे किया सुखैषी जीवोंकी बात अलग है। था। वे इसका पूर्णतया पालन करते हुए भी वर्षों तक जैनधर्मकी अहिंसा पर दूसरा और बड़ा माक्षेप जीवित रहे और जगन्को अपना परम सत्व सममाते यह किया जाता है कि इस अहिंसाके प्रचार ने भारत