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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ६, ७ वारमा मिला हुआ है, उसी प्रकार योगसूत्र और गुणकारभागहाराभ्यां राशिं छेदादेवापवर्तयति न च उसके भाष्यको पुरातन सांख्य, योग तथा बौद्ध आदि संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणपरम्पराअोंका वारसा मिला हुआ है । ऐसा होते हुए समुद्धातदुःखातः कर्मप्रत्ययमनाभोगपूर्वकं करणविशेषभी तत्स्वार्थके भाष्यमें एक स्थल ऐसा है कि जो जैन मुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य अंगग्रंथों में अद्यावधि उपलब्ध नहीं और योगसूत्र के फलाभाव इति । किं चान्यन् । यथा वा धौतपटां भाग्यमें वह उपलब्ध है।
जलाई एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वमिहतः __पहले निर्मित हुई आयु कमनी भी हो सकती है. क्षिप्रं शोषमुपयाति न च संहते तस्मिन् प्रभूतस्नेहा अर्थात बीच में ट भी जा सकती है और नहीं भी टूट
गमा नापि वितानितंऽकृत्स्न सापः तद्वद्यथोक्तनिमित्तामकती, ऐसी चर्चा जैन अंगग्रंथों में है परन्तु इस पवर्तनः कर्मणः निनं फलोपभोगो भवति । न च कृतचर्चा में आयके टूट सकने के पक्ष की उपपत्ति करनेके
प्रणाशाकृताभ्यागमाफल्यानि ।" लिये भीगे कपड़े तथा सूखे घासका उदाहरण अंगग्रंथों
-२, ५२ का भाष्य में नहीं, तत्त्वार्थक भाष्यमें इसी चर्चा के प्रसंग पर ये दोनों उदाहरण दिये गये हैं जो कि योगसूत्रके भाष्य
योगसत्र-भाष्य में भी हैं। इन उदाहरणों में खूबी यह है कि दोनों आयर्विपाकं कर्म द्विविधं सोपक्रमं निरुपक्रमंच। भाष्योंका शाब्दिक मादृश्य भी बहुत ज्यादा है । साथ तत्र यथार्द्र वस्त्रं वितानितं हमीयसा कालेन शुष्येही, यहाँ एक विशेषता भी है और वह यह कि योग तथासोपक्रमम । यथा च तदेव संपिण्डितं चिरेण मत्रके भाष्यमें जिसका अस्तित्व नहीं ऐसा गणित- संशुष्यदेवं निरुपक्रमम् । यथावाग्निः शुष्के कक्षे विषयक एक नीमग उदाहरण तत्त्वार्थमृत्रके भाष्यमें मुक्तो वातेन समन्ततो यक्तः क्षेपीयसा कालेन पाया जाता है । दोनों भाष्योंका पाठ क्रमशः इस दहेत तथा सोपक्रपम् । यथा वा स एवाग्निस्तृणप्रकार है:
राशी क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्विरेण दहेत् तथा तरवार्थसत्र-भाष्य
निरुपक्रमम् । तदैकभविकमायुष्करं कर्म द्विविधं सो"xxशेषा मनष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमानिकप पक्रमं निरुक्रमं च।" क्रमाश्चापवायपोऽनपवायषश्च भवन्ति । xxx
-३,२२ का भाष्य अपवर्तनं शीघ्रमन्नर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोगः उपक्रमोऽप- (ग) अक्षपादका न्यायदर्शन' ईसवी सन के प्रारम्भ वर्तननिमित्तम् । x x x x संहतशुष्कतण के लगभगका रचा हुआ माना जाता है । उसके ऊपर राशिदहनवत् । यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तण- का वात्स्यायन-भाष्य' दूसरी,तीसरी शताब्दीके भाष्यराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो कालकी प्राथमिक कृतियों में से एक कृति है । इस भवति तस्यैव शिथिलप्रकीर्णापचितस्य सर्वतो कृतिके कुछ शब्द और विषय तत्त्वार्थभाष्य में पाये युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशुदाहो जाते हैं । न्यायदर्शन (१,१,३)-मान्यप्रमाणचतुष्कवाद भवनि नद्वन यथा वा संख्यानाचार्यः करणलाघवार्थ का निर्देश तत्त्वार्थ अ०१. सु०६ और ३५ के भाष्यमें