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अनकान्त
वर्ष १, किरण ६, ७ देख करके प्राणियों की अनुकंपा से प्रेरित होकर यह उमास्वातिके साथ विद्या अथवा दीक्षा-विषय में गुरुनत्त्वार्थाधिगम नामका स्पष्ट शास्त्र विहार करते हुए शिष्यभावात्मक सम्बन्ध था इस कल्पनाको स्थान ही कुममपुर नामके महा नगर में रचा है। जो इस नहीं है। इसी प्रकार उक्त प्रशस्ति में उमास्वाति के नत्त्वार्थशास्त्रको जानेगा और उसके कथनानुसार वाचक-परम्परा में होने का तथा उच्चनागर शाखा में
आचरण करेगा वह अव्याबाधमुख नामके परमार्थ- होने का स्पष्ट कथन है, जब कि कुन्दकुन्द के नन्दि मोक्ष-को शीघ्र प्राप्त करेगा।"
संघमें होनेकी दिगम्बरमान्यता है; और उच्चनागर ___ इस प्रशस्तिमें ऐतिहासिक हक़ीक़तको सूचित नाम की कोई शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में हो गई हो करने वाली मुख्य छह बातें हैं-१ दीनागुरु तथा ऐसा आज भी जानने में नहीं आता। इससे दिगम्बरदीक्षाप्रगुरुका नाम और दीक्षागुरुकी योग्यता, २ विद्या- परम्परा में कुंदकुन्द के शिष्यरूपसे माने जाने वाल गुरु तथा विद्याप्रगुरुका नाम, ३ गोत्र, पिता तथा माता उमास्वाति यदि वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति हो ना का नाम, १ जन्मस्थानका तथा ग्रंथरचनास्थान का भी उन्होंने यह तत्वार्थाधिगम शास्त्र रचा था यह नाम ५ शाखा तथा पदवी का सचन, और ६ ग्रंथकर्ता मान्यता विश्वस्त आधार से रहित होने के कारण नथा ग्रन्थका नाम।
पीछे से ५० कल्पना की गई मालम होती है। जिस प्रशस्तिका मार ऊपर दिया गया है और जो इस समय भाष्यके अन्तमें उपलब्ध होती है वह प्रशस्ति
___* श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंमें, आजमे पाठ सौ वर्ष पहले,
1 जो 'तदन्वये' और 'तदीय घशे' शब्दांके द्वारा उमास्थातिको उमास्वा
कुन्दकुन्द का 'बाज' प्रकट किया है उस कल्पना का इससे कोई कुछ भी कारण नहीं । डा०हर्मन जैकोबी जैसे विचारक विरोध नहीं आता । हो सकता है कि उमास्वातिके इस प्रशस्तिभी इम प्रशस्तिको उमाम्बातिकी ही मानते हैं और यह प्रतिपादित प्रगुरुसे पहले का जो स्थान है वही कुन्दकुंद का स्थान बात उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किये हए तत्वार्थ के जर्मन हो,और इस लिये उमास्वाति कुन्दकुन्द की वशपरम्परा एवं शिष्यअनुवाद की भूमिका से जानी जा सकती है ! इसमे र
-सम्पादक परम्परामें ही हुए हों।
६ देखो, स्वामी ममन्तभद' पृ०१५८से तथा इस लेखका परिशिष्ट इसमें जिस हक़ीक़त का उल्लेख है उसे ही यथार्थ मान
x यह मान्यता बहुत कुछ आधुनिक है मोर नन्दिसघकी प्रायः कर उस पर से वा० उमास्वाति विषयक दिगम्बर- उस अविश्वसनीय पट्टावनीकी कल्पना-जैसी कल्पनासे ही सम्बंध रखती श्वेताम्बर-परम्परा में चली आई हुई मान्यताओं का है। वास्तवमें कुन्दकुन्द इस नन्दि मादि चार प्रकारके संघभेद से खलामा करना यही इस समय राजमार्ग है। पहले हुए जान पड़ते हैं । अकलङ्कदवसे पहलेके साहित्यमें इन संघभेदों
का कोई उख भी नहीं मिलता-उदाहरण के लिये शक स०४८८
मर्करा के ताम्रपत्रको लीजिये, उसमें 'कुन्दकुन्दान्वय' का तो उख दूसरी बात कुन्दकुन्द के साथ दिगम्बरसम्मत उमा
है परंतु किमी संघका नहीं-और श्रवणबेल्गोल के १०८ (२५८) म्वाति के सम्बन्धको असत्य ठहराती है । कुन्दकुन्दके न के शिलालेखमें यह साफ़ लिखा है कि यह सबभेद प्रकलदेवके उपलब्ध अनेक नामो में से ऐसा एक भी नाम नहीं बाद हुआ है । इससे कुदकुद की शाखाविरोष का अभी कुछ ठीक जो उमास्वाति-द्वारा दर्शाए हुए अपने विद्यागुरु तथा पता नहीं है।
-सम्पादक दीक्षागरु के नामों में आता हो; इससे कुन्दकुन्दका १० देखो नोट न०४ तथा इस लेख का परिशिष्ट'
में