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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ६, . मूल सूत्ररचनाके उद्देश्य को जनाने की पूर्ति करती बैठे और उसके आदि तथा अन्तके मनोहर तथा महत्व हुई मूल ग्रन्थ को ही लक्ष करके लिखी गई मालम पूर्ण भागकी व्याख्या करनी छोड़ देवै ? यह सवाल हमें होती है ; उसी प्रकार भाष्यके अन्तमें जो प्रशस्ति है इस निश्चित मान्यताके ऊपर ले जाता है कि भाष्यकार उसे भी मून सत्रकारको माननेमें कोई खास असंगति सूत्रकार से भिन्न नहीं हैं और इसी से उन्होंने भाष्य नहीं, ऐमा होने हुए भी यह प्रश्न खड़ा ही रहता है लिखते समय सुत्रग्रंथको लक्ष करके कारिकाएँ रची कि यदि भाष्यकार सत्रकार से भिन्न होते और उनके तथा शामिल की और अन्तमें सूत्र तथा भाष्य दोनोंके सामने सूत्रकार की रची हुई कारिकाएँ नथा प्रशम्नि कर्तारूपसे अपना परिचय देने वाली अपनी प्रशस्ति मौजूद होती नो क्या वे खुद अपने भाष्य के प्रारंभ में लिखी है। इसके सिवाय, नीचेकी दो दलीलें हमें सूत्र
और अंतमें मंगल-प्रशस्ति जैसा कुछ न कुछ लिखने से कार और भाष्यकारको एक माननेके लिए प्रेरित रह जाने ? और यदि यह मान लिया जाय कि इन्होंने करती हैं। अपनी तरफसे श्रादि या अंतमें कुछ भी नहीं लिग्वा नो १ प्रारंभिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भी एक सवाल रहता ही है कि,भाष्यकारने जिस प्रकार भाष्य में भी 'वच्यामि वक्ष्यामः" आदि प्रथम मत्रका विवरण किया है उसी प्रकार सत्रकारकी कारि- पुरुषका निर्देश है और इस निर्देशों की हुई प्रतिज्ञाके काओं और प्रशस्तिगन्थ का विवरण क्यों नहीं किया?
अनुसार ही बादको सत्रमें कथन किया गया है। इसम्म क्या यह हो सकता है कि वे सूत्रग्रन्थकी व्याख्या करने सत्र और भाष्य दोनों को एककी कृति मानने में मंदेह पाई जाती है और व्याख्याकार इन पद्योंका भाष्यका समझ कर ही
. नहीं रहता। उनके ऊपर लिखते हैं। इनमें में ८ पद्यको उमास्वातिकक २ शुरू से अन्त तक भाष्यको देख जाने पर एक मान कर प्रा० हरिभद्रने माने 'गास्त्रवात समुच्चय' में ६६ व पद्य बात मन पर ठसती है और वह यह है कि किसी भी के रूपमें उदधृत किया है । इसमें भाठवी शताब्दी के श्वेताम्बर आ- स्थल पर सूत्रका अर्थ करने में शब्दोंकी खींचातानी नहीं चार्य भाष्यको निर्विवाद रूपमे स्वापक्ष मानते थे यह निश्चित है। हई, कहीं भी सत्रका अर्थ करने में संदिग्धपना या - इन पद्मांको पूज्यपादने प्राभिक कारिकामोंकी तरह छोडही विकल्प करने में नहीं आया, इसी प्रकार सूत्रकी कोई दिया है, ना भी पूज्यपादक अनुगामी अकलंक ने अपने राज
- दूसरी व्याख्याको हृदयके सन्मुख रखकर सूत्रका अर्थ वारिक' के अन्तमें इन पद्योंको लिया हो ऐसा जान पड़ता है: क्योंकि मुद्रित राजवार्तिकके अन्त में व पद्य दिखाई देते है। दिगम्बराचार्य नहीं किया गया और न कहीं सूत्रके पाठभेद का ही अमृतचन्द्र ने भी अपने 'तत्त्वार्थसार' में इम्हीं पद्योंको नम्बरोंके अवलम्बन लिया गया है। कुछ थोडेसे फेर-फारके साथ लिया है।
___२६ "तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बर्थ संगहं लघुगन्थम । ___ इन अन्तके पद्योंके सिवाय, भाष्यमें बीच बीच में "माह" वक्ष्यामि शिष्यहितमिममहद्वचनैक देशस्य ॥२" "उक्तंच" इत्यादि निर्देशके साथ और कहीं बिना किसी प्रकारके न च मोक्षमार्गाद् व्रतोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽम्मिन निर्देश के कितने ही पद्य पाते हैं । ये पद्य भाष्यकता के ही हैं या तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ।। ३१॥ किसी दूसरे के हैं इसके जानने का कोई विश्वस्त साधन नहीं है। २५ गणान् लक्षणतो वक्ष्यामः-५, ३७ का भाष्य, अगला पल्तु भाषा और रचनाको देखते हुए उन पद्योंके भाष्यकारके ही सुन ५, ४० "अनादिरादिमांश्च तं परस्तावश्यामः" होनेकी संभावना विशेष जान पड़ती है।
-५, २२ का भाष्य, अगला सूत्र ५, ४२ ।