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वैशाक्य, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ]
साथ निधिरामका साक्षात् - परिचय हुआ । निघिरामको देख ही बिना कुछ भूमिका के बालिका ने कहा"तुमने पहले जनममें कानेको काना कहा होगा, क्यों सिन्दूर वाले ?"
सिन्दूर बाला
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कहने की जरूरत नहीं कि पहले जन्मकी बात faferमको बिलकुल भी याद न थी, लेकिन फिर भी इस नवागता बालिका के साथ बातचीत का सिलसिला नमानेके लिए उसने कहा - "हाँ, लच्छिमी बिटिया । " "माँ कहती थी कि इसीसे इस जनममें तुम काने हुए हो, नहीं ?" कह कर उसने एक प्रचंड अभिशाप वाणी मुँहसे निकाली - "सान्ती, हुकमा, मुरी, मोती - सब कोई उस जनममें काने होंगे। तुम्हे चिढ़ाते हैं न ?”
कहने लगी- " इसके और पीले हाथ करदें, सोई छुट्टी है। उन दोनोंको तो किसी तरह ब्याह-व्यूह दिया है । मइया ! लड़के-बाले पाल-पोस कर बड़ा करना बड़ा मुशकिल काम है ।" इतना कहकर अपना गुड्डा-गुड्डियों का डब्बा उठा लाई, और सिन्दूर बालेके हाथमें देकर बोली - "देखो तो सही, बिटिया मेरीका मुँह सूख गया है- मारे घामके। अब इसे पानीमें नहलाकर छाँह में रखना होगा, नहीं तो मुहल्ले के लोग बक का मुँह देखते बनत नाक- मुँह सिकोड़ेंगे, कहेंगे अच्छी नहीं है।" *
इतने में भीतर से बुलाहट हुई—- "सरसुती ?" “उह मेरी मैया ! घड़ी-भर अपने लड़के वालोंके दुख-सुख की बातें भी करलूं, मो भी नहीं ।" कह कर निधिरामने दाँतों तले जीभ दबाकर कहा - "ऐसी बालिका खड़ी हो गई। गुड्डा-गुड़ियोंका बकस उसके बात नहीं कहा करते, लच्छिमी- बिटिया !” हाथ में देकर निधिरामने कहा- " तो चलता हूँ अब, लच्छिमी बेटी !"
अब तो 'लच्छिमी बिटिया' ने उम्र रूप धारण कर लिया, बोली - " कहूँगी, हजार बार कहूँगी । वे तुमसे काना क्यों कहते हैं ?" कह कर जरा थम गई; फिर पूछने लगी- "तुम ब्राह्मण हो "
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निधिरामने कहा- "हाँ ।
"
प्रश्न करनेवालीको सन्देह झलकने लगा. कह उठी-" देखूँ जनेऊ
निश्विगमने फटी मिरजई के भीतर मैला जनेऊ निकाल कर दिखाया। बालिकाने कहा - "कल रधिया के लड़के के साथ मेरी लड़कीका व्याह होगा। तुम मन्तर पढ़ दोगे?"
निधिरामनं उसी क्षण पौरोहित्य स्वीकार कर लिया, कहा - "पढ़ दूँगा ।"
"लेकिन हम लोग ग़रीब आदमी है, दक्छिना नहीं दे सकेंगे, समझे?" - बड़ी गंभीरता के साथ बालिका
"मैं लच्छिमी नहीं हूँ-मरसुती हूँ मरसुती ! मुझे मरसुती बेटी कहा करो, समझे ११ – इतना कहकर बालिका भीतर चली गई ।
निधिराम के साथ सरस्वती के परिचयका मनपान हुआ उस नरः ।
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ग्रह बातुन लड़की निधिगमको महमा बहुत अच्छी लग गई। धीरे-धीरे, कालीघाटके खिलौने, लाम्ब की बुढ़ियाँ जरीवार कपड़ोंके दो-एक टुकड़े निधिगम की पेटीमें जगह पाकर अन्तमें सरस्वती fखिलौनेक बीच श्राश्रय पाने लगे। प्रतिदिन के श्रानन्द- शन्य ना तार एक-मी-विक्री के बीच में इस लड़की के साथ
मां कह सुनी हुई बानोको बेटीने किस तरह ज्यों की न्यों हिरवे में रख लिया है, जरा देखिये तो सही
अनुवादक