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देशाग्य, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] पीडितोंका पाप वर होता नहीं। उसका भी कुछ अधिकार लोगों पर होता अपनी कामनायें, अपनी आवश्यकतायें घटा कर सत्य
और वहाँ वह उस अधिकारका पूरा प्रयोग करता और न्यायके लिए, जो कि वास्तविक सम्ब और शक्ति है वह वेतमें अपने बैलों पर अपना क्रोध उतारता है। के देने वाले हैं, अपना सब कुछ न्यौछावर करदें। यदि ऊँची जाति का हुआ तो नीची जाति वालों पर यदि अाज किसान दरिद्रता, सादगी का महत्व अत्याचार करता है, उन्हें कुत्तों की तरह दुरदुराता है। ममझ कर चले, अमारी मिलने पर भी उसे लान परम अपनी स्त्रीकी लातों और घूमोंमे पूजा करता है। मार म और सत्यके लिए, न्याय के लिए सब कुछ कम-से-कम स्त्री तो हर कोटिके मनुष्य के लिए-चाहे. सहनको तैयार होजाय, नो वह पीड़ित नहीं रह सकता। वह राजा हो, चाहे किसान-पीड़क और पीडितका सं- कदापि नहीं ! पीड़ा का कीड़ा तो हमारे भीतर है। बंध पैदा कर देनेवाली चीज है। सभी निराशाओ, मभी उसने हमाग माग अन्तःकरण म्बा डाला है, पालाकर नुकसानों का क्रोध उसी बेचारी पर उतारा जाता है। दिया है, उस कीड़े को बाहर निकाल फेंककर अन्तःश्री अपना क्रोध कभी-कभी अपने बच्चे पर उतार लेती करण को फिर मे मजबन बनाकर हम आगे बढ़ेंगे तो है, और बच्चे अपनी माँ पर ! शायद, आजके भारतमें हम मची शक्ति, मच्चा सुम्ब अवश्य पायेंगे। यह पीड़क और पीडतका चक्र यहीं जाकर समान होता हम आज स्वगन्य चाहते हैं। विदेशी हमार है । स्त्री और बच्चा, ये ही नाना जीव मानव-समाजमे शासक हैं। वे हमारा लाभ न दबकर अपना लाभ मनसे निर्बल हैं । ये दोनों ही अपना क्रोध आपस में देखते हैं, हम पर अन्याचार करना है, पर इममें किम उतार कर फिर चिपट-चिपट कर रो लेते हैं. एक का दोष ' यदि हम उनकी अन्याय-कामनाओं को दूसरे पर दया दिखाते हैं-महानुभूति दिखान है। पुग न करतं जाय, नो क्या वे हम पर अत्याचार कर
इमप्रकार देखा जाय तो वास्तव में पीड़ा बुलानसे मकन है ? अपनी क्षुट वामनानी के कारण आपम ही आती है, और पीड़ित स्वयं ही उमको दूर कर मका में हम एक-दूसरे को पीदिन करते हैं, जिसके कारगा ता है। दूमग कोई नहीं । भिम्वमंगेको भीख देकर हम हम निबल बन गये हैं। विदेशी मरकार अपना मन. उमकी पीड़ा कम नहीं करते बल्कि उसकी वामनावोंको लब मिल करने के लिए हम में से कुछ को फोद लेती बढ़ाने में महायक बनकर हम उसकी पीडाबढ़ाते ही हैं। है. उनकी वामनाएँ पूरी करनी है, और उन्हीं के द्वारा किमानों पर मरस खाकर जमींदारों और पूंजीपतियाके हमारे दूमरे भाइयों को लुटवाती रहती है। यदि हम विरुद्ध आन्दोलन करनेसे हम किमानोंका दम्न कम इस प्रकार उमके स्वार्थ-माधन की मशीनगन गहन में नही करसकते । स्त्रियों की पीडासे दु.खी होकर, कविना मुँह मोड़लें, नो क्या वह एक क्षण भी यहां ठहर
और उपन्यासोंमें उनका करुणचित्र खींचकर पुरुषोंको मकती है ? पर यह माज की दशा में मरल नहीं। गालियाँ देकर,हम नियोंकी पीड़ा कम नहीं कर सकते। हमें अपना स्वार्थ छोड़ देना होगा, क्षुद्र वामनानी का
इसके लिए तो हमें उन्हें ही तैयार करना होगा किसान जला देना होगा, प्राणों और प्राणाधिक प्रेमीजनों का अमी रके अत्याचारों के भागे सिर न मुकाए, सियाँ मोह त्याग देना होगा। मतलब यह कि हमें सत्य और पुरुषों की मनमानीको चुपचाप न सहें।अपनी वासनायें, न्याय का आयल बन जाना होगा, सत्य और न्यायके