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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ६, . का "र" करने वाला कोई विधान नहीं था, इस यही नहीं, थेरावली की अनेक अप्रसिद्ध बातोंका बाम्ते “रेल" का स्थानापन्न "ऐर" नहीं हो सकता। समर्थन भी इस पट्टावली से होता है । कोई कोई विद्वान “ोरेन" इस शब्द को "धेरेन" हमें जो थेरावलीकी पुस्तक हस्तगत हुई है वह इस प्रकार भी पढ़ने हैं जिसका संस्कृत रूप "वजेण' अचलगच्छपट्टावली की पुस्तकके प्रथमके ९ पत्रों में होना है। क्या आश्चर्य है कि अन्य उपाधियोंकी तरह लिखी हुई है और इसके बाद अचलगच्छकी वृहत्पट्टा"व" यह भी ग्वाग्वेलकी कोई उपाधि हो ? और वली लिखी हुई है, यह संपूर्ण प्रतिसंवत् १८९३ में यदि उडिया दन्तकथाके अनुसार यहाँ “ऐर" पाठ ही लेग्यक गमचन्द्र-द्वारा नागोर में लिखी गई थी यह ठीक मान लिया जाय तब भी उमको “ऐलेय" का बात इस पुस्तक के अन्तमें दिये हुए निम्न लिखित वंशज मान लेने के लिये क्या प्रमाण है ? जब 'गल' वचनोंसे जानी जाती हैनाममं कोई वंश ही प्रचलित नहीं था तो वाग्वेल "मंवत् १८९३ वर्षे मार्गसीर शुक्ल नवमी तिथी अपन लेवमें उमका निर्देश फैमें कर मकन
ध नागोर नगरे लेखक साचीहर विप्र रामचंद्रेण लिखिता। हिमवन्त-धरावली-गत वाग्वेल-विषयक वृत्तान्त चिरं नंदतु ।' को अप्रामाणिक ठहराने के लिये बाब कामताप्रसादजी हिमवन्त-थरावलीके संबंधमें हम यहाँ अधिक नहीं जैन ने अपनी तरफसे जो जो दलीलें पेश की थीं उन लिखेंगे। इसकी विस्तृत आलोचना एक स्वतंत्र निबंध का संक्षिा उत्तर ऊपर दिया जा चुका है। अब हमारे में हो सकती है जो अधिक समय और विचारणाकी मतसे तो यह बात निश्चित हो गई है कि 'हिमवंत. अपेक्षा रखता है । यदि अनुकूलता प्राप्त हुई तो इसके घेराबली' कोई आधुनिक रचना नहीं है किन्तु सैंकड़ों लिये भी अवश्य ही उद्योग किया जायगा। वर्षोंका पुराना निबन्ध है । इसकी मूल प्रति कच्छमारवीके पन्तकभण्डारसे हमें पगिडत सुखलालजी बत-शवलीका म्पट नामोटिस तक कर दिया है। जोइस प्रकार हैसंघवीके द्वारा भी मिली है, जिसका विस्तृत प्रव. "बलिस्सहमुनिवराश्च पश्चात् स्वपरिवारयुता. लोकन कभी मौका मिलने पर लिखा जायगा. पर मथविरकल्पमभजन् । परं नेषां शाखा पृथगेव वाचक
ना ना यहाँ कहना प्रासंगिक होगा कि गवली गणाख्यया प्रसिद्धा जाता । तत्परिवारश्च पूर्वमेवार्यपराना मगध है, यही नहीं वह एक अति महत्वका ऐति
हिमवद्विरचितम्थविरावल्यां कथितोऽस्ति ततोऽवसेयः ।"
। प्रथलगन्धपट्टाक्ली, १५.२) हासिक प्रन्थ है । अन्तमें इसको हिमवंत-कृत लिखा
यह अल्लग्न पहावली में कहीं प्रक्षिप्त तो नहीं, इमे तथा और है पर अभी हम यह निश्चित नहीं कह सकतं हैं कि
भी दसरे उल्लेखोंको खाम तौरसे जांचनेको जस्तहै।क्योकिरावली यह हिमवंत-कृत थेरावली ही है या हिमवंत-थरावला माली दोनों के प्रकाशक माशय एक हैं और उनकी स्थिति पं. का सार ?, हिमवंत-धरावली नामक प्राचीन थेरावली
माधान थरावला मुखलाल जीमे बहुत कुछ संदिग्ध मालूम हुई हैं। -सम्पादक श्वेताम्बर जैन साहित्य में एक प्रसिद्ध प्रन्य होने का प्राचार्य भावाहु और मार्गमहागिरिका कुमर गरि पर सोवाम प्रमाण हमें अचलगच्चीय प्राचार्य मेरुतुंगकी विक्रम डोनेमिक्त-राक्ली में अन्सा और उसी बातका इसमालपासंवत् १४३८ में निर्मित पट्टावली में मिलता है । बलीसे भी समर्थन होता है। इसमें जमरगिरि और मिथुराजा
बलिपसह स्वपिरके प्रसंग परापलीकारने एक जगह मि. नामोल्नेसमीरोहित-क्लीके सपनोपाहीमार करता।