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जैनों की महिमा
फाल्गुन, वीरनि० सं०२४५६]
बाई
जैनों की अहिंसा
(ले०-श्री० व्याख्यानवाचस्पति पं० देवकीनंदनजी. सिद्धान्तशास्त्री
हात्मा गान्धीने जबसे देशो- सद्गण, और 'व्यपरोपण' शब्द का अर्थ घात है। द्वारके लिये बिगुल बजाया अर्थात् क्रोधादि विकारोंके योगसे आत्माके विवेकादि है और उसका साधन अहिं- गुणों का जो घात होता है उसे हिंसा कहते हैं । हिंसा साको बताया है, तबसे भारत के द्रव्य और भाव के भेद से 'द्रव्यहिमा' और 'भाव. का लोकमत हिंसा-अहिंसा हिंसा' ऐसे दो भेद हैं, और ये भी फिर स्व-पर के के स्वरूप समझने में सजग भेदसे दो दो भेदरूप हो जाते हैं। इनमें मे भावहिंसा
हो रहा है । और उसकी की साधक बाह्य क्रियाओंको अथवा द्रव्यप्राणोंके पात उपयोगिता-अनुपयोगिताके विषय में उहापोह करने को 'द्रव्य-हिंसा' और उसके निमित्तादि से रागादिक लगा है । जैनधर्मानुसार अहिंसा तत्त्वका स्वास महत्व भावों की उत्पत्ति होकर जो भावप्राणों का पात होता है-वह उसका एक उत्तम सिद्धान्त है । जब उसकी है उसे 'भावहिंसा' कहते हैं । वास्तव में यह भावहिंसा सम्यक् आराधनासे प्रात्मा परमात्मा हो सकता है- ही हिंसा है, बिना भावहिंसा के कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा कर्मबन्धन से छूट सकता है-तब अन्य राष्ट्रीय नहीं कही जाती है। प्रस्तु, इम हिंसा न होनेका पारतंत्र्य से छूटना कौन बड़ी बात है ? वह तो ही नाम अहिंसा है । यह महिमा श्रावक और यतियों अहिंसाकी सम्यगाराधना के द्वारा सहज माध्य है। भेद में दो प्रकार की है । गष्ट्रोद्वारका मुख्य मंबंध अनः अाज जैनदृष्टि से अहिंसाविषयमें ही कुछ विचार गहाथाश्रममं होने के कारण इम लेम्बमें श्रावको अधना प्रस्तुत किया जाता है।
हस्थधर्म के अनुयायी जैनांकी अहिमा परी विचार प्रमादके योगर्म प्राणोंके व्यपरोपणका हिंसा कहने किया जाना है। हैं * । 'प्रमाद' शब्दका अर्थ काम-क्रोधादिक विकार, - "अप्रादुर्भावः खल रागादीनां भवत्यहिंमति । 'प्राण' शब्दका अर्थ मात्माके स्वाभाविक विवेक आदि पामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमभ्य मलेपः ।।४।।
युक्ताचरणस्य सतो रागापाशमन्नरंगणापि । * "प्रमत्तयोगात् प्राणन्यपरोपणं हिंसा।" नहि भवनि जातु हिंमा प्रागणव्यपगपरमादेव ।।४।।
--पुश्वामिन्युपाय।