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अनेकान्त
वर्ष १, किरण
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प्राकृत--
तक हे जीव ! तू अपनी आत्मा का हित साधन कर।। मीलं वदं गणों वा रणाणं हिस्संगदा सहचाओ। -यदि इनमें से कोई कारण आ बना तो फिर इच्छा जीव हिमंतस्म , मव्वे विणिरत्थया होति ।। रहते भी त अपना कल्याण नहीं कर सकेगा।
-शिवार्य । जहिं मइ नहिं गइ जीव तुहूं. मरगवि जेण नदि । ‘शील,व्रत, गुण, जान, निःमंगता और सुखत्याग, तें परवंभ मुपवि मई, मा परदायि करेहि ।। यं सभी उम मनप्यमें निरर्थक हो जाते हैं जो हिंसा
-योगीन्द्रदेव । करना है। क्योंकि इन सबका उद्देश्य खेतकी बाड़की 'जहाँ मति वहीं गति' इस सिद्धान्तके अनसार हे नरह अहिंसाकी रक्षा ही होता है। जब वही न हुआ जीव ! यदि तुझे मर कर परब्रह्म की प्राप्ति करना है नब इनका वास्तवमें कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। ना परब्रह्म को छोड़ कर अपनी बद्धिको अन्यत्र पर मवेसिमासमाणं हिदयं गम्भो हु सव्वमत्थाणं। द्रव्य में मन लगा।' समि बदगणाणं पिंडो मारो अहिंसा ह॥ । दह-पग्ग्रिहादिको अनुगग बता कर उन्हीं की चिन्ताम ... _
_शिवाय रहनेमे जन्म-जन्मान्तर, उनी की प्रापि होती रहती है-पा: 'मर्व आश्रमोका हृदय, मर्व शाम्रोंका गर्भ, और की अथवा शद्वान्मभाव की प्राप्ति दत्ता हो जाती है ।] मर्व ब्रतों तथा गणोंका पिंडीभन मार एक 'अहिंसा' है। जस हरिणच्छी हियवडा, नमणवि भवियागि। बाहिरसंगमाओ गिरिसग्दिरिकंदराइ प्रवासी । एकहि कम समंति वढ, बेग्वंडा पडियारि ।। मयलो णाणज्झयणोणिग्न्यो भावरहियाणं ।।
-योगीन्द्रदेव । -कन्नकन्दाचार्य।
जिमक हृदय में हर समय मगनयनी का-मंदर 'जो भाव र्गहन हैं-माधनाकं भाव एवं प्रा.म- स्त्रीका-वाम है-उमीके अनगगमें जो फंसा रहता है भावनाम न्यन हैं-उनका बाह्य परिग्रहका त्याग. पर्व -उसके हृदयमें ब्रह्मका विचार प्रवेश नहीं करता। मां नांक ऊपर-नदियों के तट पर तथा गिरिगहा-कन्दराओं ठीक ही है एक म्यानमें दो ग्वदग कैमेश्रामकते हैं। में निवास और मंपर्गा माना गयन निरर्थक है-विद- इसम १ जाना जाता है कि जो लोग ब्रह्मचर्यका टीम म्बना मात्र है।
पालन करते हैं वही ब्रह्मका यथे विचार कर सकते हैं दम नहीं । बिना भावके इन परिग्रह त्यागादिक अनुटानमें कुछ भी मारना सनथवि पियवयणं हायणेदजण विखमकरणं उत्थरइजाण जरओ रोयग्गी जाणडाइ देह उडि । सम्वेसि गण गहरणं मंदकसायाण दिढता ।। इंदियपलं न वियलइ नाव तुमं कुणहि भापहिय।।
-स्वामिकार्तिकेय । -कुन्दकुन्दाचार्य । सर्वत्र-शत्रमित्रादि सबके साथ-प्रिय वचन 'जब तक जरा का आक्रमण नहीं होता-बुढापा बोलना, दुर्वचन सुनकर भी दुर्जनके प्रति क्षमा धारण नहीं पाता-, जब तक रोगाग्नि इस देह कुटीको नहीं करना और सबों के गण ग्रहण करना-दोष नहींजलाती और जब तक इन्द्रियबल नष्ट नहीं होता तब ये सब मंदकषायी जीवों के चिन्ह हैं।