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वैशाख, ज्ये, बीरनि०सं० २४५६] छलना
२४१ गालाम बनाना ही हिंसाचरण है।
शासन-द्वारा किये गये अपने देशके अपमानके कारण यशेप इस प्रकार पीड़ित है और संक्षोभमें भटकता संक्षुब्ध हैं, परन्तु स्वतन्त्रताके युद्ध में शक्तिका रहस्य फिर रहा है, और प्रायःलोग उस की शक्ति को भूलसे धैर्ययक्त उद्यम और प्रात्म-यज्ञ का अभ्यास है । जिस स्वतन्त्रता समझ बैठे हैं । साधनों के बिना और नैतिक अहिंसाकी चर्चा में कर रहा हूँ, वह निर्बलता नहीं है। नियमोंके अभ्यासके बिना स्वातन्त्र्य नहीं हो सकता। मथी अहिंसा मृत्यका डर नहीं है, किन्तु मनष्यताके यरोप अभी तक राष्ट्रीय और जातीय नियमसे अधिक प्रति आदर भाव है । मुझे गहरा विश्वास है कि भारत
और किसी नियम को नहीं मानता। इसके परिणाम स्वतन्त्र हो जायगा, यदि वह अपने आपके प्रनि मया १ गष्ट्रीय संघर्ष और पश्चिमके राष्ट्रवाद । इनका परि- होगा । मुझे उपनिषदोंके इम उपदेश पर पुरा विश्वाम पाम हुआ संसार-व्यापी युद्ध, और युद्धका अभी तक है कि अहिंसा यह है, और यह अथवा बलिदान अन्त नहीं हुआ है।
महान बल है। जब मैं अपने कामके लिए जाता है, मुझे मालूम है कि युवकांको हिंसाके मूल्यके विषय नब गीताके एक उद्गार को अपने पाप गुनगुनाया म मन्यह है । वे प्रकृतिमे शक्ति-मदमत्त अनियन्त्रित करता है "हे कोन्नय, मंरा भारत कभी नष्ट न होगा!"
'* उलना *
[लवक-श्रामगबन्न गणपति गायलीय । जब योवन की प्रथम उषा में, मैंने आँखें खोली बाली चिन्तित न हो युवा, दो में पतवार चला; भवमागर के पार पति है हँस आशाएँ बोलीं। अपने मंग तुम्हें भी भव के उम नट पर पहुँचा। मोचा, क्यों न चल उम पार
मंत्र-मुग्ध-मा बैट। नारा ; बैठा तरि पा ले पनवार ।
नरी बढ़ चली ज०। ५. मन्ना। में था श्रमभव हीन यवा, कैम पनवार वलानामधि मिया में पाक नारणी इठला गया गेमा नाविक मिला न जो उम पार मुझे पहुँचाना। हम दोनों पर प्रेम-सुग की मानकता छाईन । वनब स्वर्ग-ज्योति-सी आई,
in बोला, तुम पर न्यौछावा मुझे देखते ही मुसका।
वाली. प्रियतम प्राणेश्वः । अकस्मान हो उठा क्षुब्ध मा रकिनाग, वे तो अन्तर्धान हुई बैठा हूँ मैं बचाग ।
कोई उन का पता बता दो था कि किनारे सरी लगा दी।