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शाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६]
आचार्य जयकीर्ति का 'छन्दोऽनशासन'
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आचार्य जयकीर्ति का 'छन्दोऽनुशासन'
[लेखक-श्री पं० नाथरामजी प्रेमी] अनेकान्त' की पाँचवीं किरण में 'योगसार और न्यैतच्छंदोऽनशासनं विहितमिति प्रान्ते दर्शितम् । अमताशीति' नाम का एक नोट प्रकाशित हुआ है, सं०५११२ वर्षे योगसारलेखयिता ऽमलकीतिजिममें डा० पिटर्सन की पाँचवीं रिपोर्ट के आधार से रस्य शिष्यो ज्ञायते । प्रा०शिलोपदेशमालायाः यांगमार की उस प्रति का उल्लेख किया है, जो संवत् प्रणेता जयकीर्तिः स्वं जयसिंहमारिशिष्यत्वेन १२ की ज्येष्ठ सुदी १३ को जयकीति सरि के शिष्य परिचायतिस्म. स त्वम्माद भिन्नो विज्ञायतो" अमलकीर्तिने लिखवाई थी
अर्थात्-वर्द्धमान को नमस्कार करने से यह कवि श्रीजयकीतिसरीणां शिष्येणामलकीत्तिना। जैन मालम होता है। उसने अन्त में बतलाया है कि लेखितं योगसाराख्यं विद्यार्थिवामकीर्तिना ॥ मांडव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सेनव, पूज्यपाद,
अमलकीर्ति के इन्हीं गुरु जयकीर्ति का बनाया जयदेव आदि विद्वानों के छन्दों को देख कर यह ग्रंथ हा 'छन्दोऽनुशासन' नामका एक महत्त्वपूर्ण पन्थ बनाया । मं०११९२ में योगमारके लिखाने वाले श्रमजैसलमेर के सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर पम्तकभंडार में है, लकीनि इसके शिष्य जान पड़ते हैं । प्राकृत शिलोपजिमका प्रारंभिक और अन्तिम अंश इस प्रकार है:- देशमालाका प्रणेता जयकीर्ति इससे भिन्न है, क्योंकि प्रारंभ
वह आपको जयसिंह मरिका शिप्य प्रकट करता है। श्रीवर्द्धमानमानम्यच्छंदसां पर्वमक्षरं ।
हमारी समझ में जयकीनि दिगम्बर मम्प्रदायके लन्यलक्षणमावीन्य वन्ये छन्दोऽनुशासनं ॥१ विद्वान हैं । क्योकि एक तो वे पृज्यपाद का उल्लेख बन्दःशास्त्रं वहि तद्विविक्षोः काव्यसागरं । करते हैं, दुमा योगमार प्रन्थ दिगम्बर मम्प्रदाय का?
छन्दोभाग्वाङमयं सर्वन किंचिच्छन्दमो विना ।।२ जिम उनके शिष्य ने लिम्बवाया है, नीमरे जयकीर्ति, 'अन्न-माण्डव्य-पिंगद-जनाश्रय मंतवाव्य- अमलकीर्नि, वामीनि इम प्रकार की कीत्यन्त नामश्रीपज्यपाद-जयदेव-बुधादिकानां ।
परम्परा दिगम्बरमम्प्रदायमें ही अधिक दी जाती है, ५ ।
जहाँ तक हम जानते हैं, यह ग्रंथ किमी दिगम्बर छन्दांसि वीच्य विविधानपि सत्प्रयोगान् । ,
| पम्नकभंडार में नहीं है । जमलमग्न इमकी प्रनि कग कर वन्दानुशासनामद जयकात्तिनातम " मंगानका प्रयत्न होना चाहिए । श्वनाम्बर मम्प्रदायक इनि जयकीतिकृती छन्दोऽनशासन - संवत् भंडाग दुर्लभ प्रन्यांका मंग्रह वहन अधिक है। १११ आषाढ शुदि१०शनो लिखितमिदामिति । विना न पड़ना है, 1 4-कानिक,
दिम ये दोनों अंश बड़ोदाकी गायकवाड़-मस्कृत-मीगज ले कि ? . क. मिनार में (Epher: phil में प्रकाशित होने वाली 'जेमलमेर-भागडागारीय ग्रंथानां Iulia 10. II भी पाया जाना है। यह प्रतिमिलना
.47 का लिया हुआ है पार मे जयकीनिक क.fa मृची में प्रकट हुए हैं । इम सूचीके सम्पादक महाशयन
गमीनिन निन्दा है'मा कि इसके निम्न अन्तिम भागमे प्रकार जयकार्ति सम्बन्धमें अपना नोट पृष्ठ ६१ पर इस प्रकार
"श्रीजयकीर्तिशिष्यण दिगंबग्गग्गेशिना ।
प्रशस्तिरांशी चक्रे...श्रीरामकीर्निना। .. “वर्द्धमाननमस्कारमालकरणेनायं कवि
संवन १२०७ मत्रधा..." जनः प्रतिभाति । माण्डव्य पिंगल-जनाश्रय- इस शिलालेखक समयको दम्वतहए. कानुगाम्नक का जयकीर्ति
- शिलालम्बमें स्थित जयकी निम भित्र मात्रम नदीहोत सम्पादक
दिया है।