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अनकान्त
वर्ष १, किरण .. और इस लिये मैंने अपनी उस चर्चा तथा विवेचना अर्थात्-उन पाँचों व्रतों (महाव्रतों) के पालने के । का नतीजा निकालने हए लिखा था:
लिये रात्रिभोजनविरमण' नामका छठा व्रत (महावन) नसे यह बात भले प्रकार ममझ कहा में आ सकती है कि रात्रिभोजनविरति' नामका व्रत इतना ही नहीं, बल्कि यहाँ तक बतलाया है किएक स्वतंत्र व्रत है । उसके धारण और पालनका उप- 'पंच महाव्रतों में रात्रिभोजनविरमण' को शामिन्न देश मुनि और श्रावक दानों को दिया जाता है-दोनों करके जो छह महाव्रत होते हैं उनका विधान आदि से उमका नियम कराया जाता है-वह अणुव्रतरूप और अन्तके दो तीर्थों में हुआ है-अर्थात् भ० ऋपभभी है और महाव्रतरूप भी। महाव्रतोंमें भले ही उमकी देव और महावीरने उनका उपदेश दिया है' । यथाःगणना न हो-वह छठे अणुव्रतके सदृश छठा महा- "इति आयपाश्चात्यतीर्थयोः रात्रिभोजनवन न माना जाता हो-और मुनियोंके मूल गणोंमें
विरमणषष्ठानि पंचमहाब्रतानि ।" भी उसका नाम न हो परन्तु इसमें मंदह नहीं कि उस का अस्तित्व पंच महाव्रतोंके अनन्तर ही माना जाता
___ इस कथन में मूलगुणों की संख्या-संख्या की है और उनके साथ ही मूलगुणक तौर पर उसके अन
अस्थिरता, जैन तीर्थकों के शासनभेद और रात्रिप्रानका पृथकरूपसं विधान किया जाता है। जैसा कि भोजनत्याग-विषय पर कितना ही प्रकाश पड़ता है; इस लेखके शुरूमें उद्धत किये हए 'आचारसार' और 'जैनाचार्योका शासन भेद' नामक ग्रन्थ में जो वाक्य * और 'मूलाचार के निम्न वाक्यसभी प्रकटहै:- कल्पनाएँ इस सम्बंध में मेरे द्वारा की गई हैं अथवा तसि चेव वदाणं रक्खहरादिभोयणविरत्ति"
नतीजे निकाले गये हैं उन सबका बहुत कुछ समर्थन सी हालत में रात्रिभोजनविरति को यदि छठा
होता है। साथ ही, इसका भी रहस्य और खुल जाता
कि वीग्नन्दि आचार्यने अपने 'आचारसार' के उम महाबत मान लिया जाय अथवा महावा न मान कर
वाक्य में, जो पीछे फटनोट में उद्धृत है, रात्रिमें मात्र उसके द्वारा मुनियों के मूलगणों में एक की वृद्धि की
अन्नके त्याग को ही छठा अणुव्रत क्यों बतलाया है। गाय- २८ के स्थानमें :९ म्वीकार किये जायँना इसम जैनधर्म के मूलसिद्धान्तोमें कोई विरोध नहीं
उनका वह कथन 'रात्रिभोजनविरमण' नामके महा
व्रत की अपेक्षा से है-महाव्रती जब रात्रिमें चारों आता।" हालम भगवती श्राराधनाकी उक्त अपराजितरि
प्रकारके श्राहारका त्याग करता है तब अणुव्रतीक विचित 'विजयादया' नामकी टीका क दवनम मुझ
पर लिय मात्र अन्न के त्यागका विधान किया जाना कुछ स्पष्ट मालूम हो गया है कि 'रात्रिभोजनविरनि' नामक छठा महावत भी बहुत पहले से माना जाता है। इस
खेद है कि हमारी बहुतसी पुरानी बातें-प्राचीन टीकामें दस स्थितिकल्पांका वर्णन करते हुए पंच महा- श्रा
आम्नायें-नई नई बातोंके पर्दे के नीचे छिप गई हैं, व्रतोंके वर्णनमें साफ लिखा है:
उनका पता लगाना बड़ा कठिन होरहा है ! प्राचीन "तेषामेव पंचानां व्रतानां पालनार्थ रात्रि
साहित्य ही इस विषयमें एक मात्र हमारा मार्गदर्शक
हो सकता है और इस लिये उसके अन्वेषण तथा भोजनविरमणं षष्ठं व्रतम् "
. प्रकाशन में हमें खास तौर से योग देना चाहिये। यह वाक्य इस प्रकार है:
जुगलकिशोर मुख्तार प्रतत्राणाय कर्तव्यं रात्रिभोजनवर्जनम् । सर्वथान्ननिवृत्तेस्तत्प्रोक्तं षष्ठमणुव्रतम् ।।
* यह ग्रन्थ 'जैनप्रन्धरनाकर-कार्यालय, हीराबाग, पो• गिन-माचारमार। गांव, बम्बईने प्रकाशित किया है और पांच माने मूल्यमें मिलता है।