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अनकान्त
[वर्ष १, किरण ५ (९) इसी प्रकार खारवेल-द्वारा एकत्र की गई टनाके कई शताब्दी बाद हुए हैं और श्यामाचार्य उन सभामें देवाचार्य, बुद्धिलिंगाचार्य, धर्मसेनाचार्य तया से भी पीछेके आचार्य मालूम होते हैं । अतः थेरावली नक्षत्राचार्यका सम्मिलित होना भी असंभव है; क्योंकि का यह वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है। ये प्राचार्य कोई श्वेताम्बराचार्य तीर्थ नहीं-श्वेपट्टा- इन सब बातोंको देखते हुए 'हिमवंत-थेरावली'को वलीमें तो ये नाम देखनको भी नहीं मिलता हाँ, दिगम्बर एक प्रामाणिक ग्रन्थ मान लेना सत्यका खून करना है पट्टावलीमें ये नाम अवश्य पाये जाते हैं। किन्तु यहाँ और इम हालतमें उसमें बताया हुआ खारवेलका वंशये सब प्राचार्य समकालीन प्रकट नहीं किये गये हैं। परिचय भी ठीक नहीं माना जा सकता। अतः आइए इनका समय एक दृमग्मे नितान्त भिन्न है। धर्मसना- पाठकगण, अब स्वाधीनरूपमें * खारवेल सिरिके वंश चार्य वोर नि०म०३२५ और नक्षत्राचार्य ३४५ में ये का परिचय प्राप्त करें। बतलाये गये हैं।२ | अतः उक्त थेरावलीके अनमारदिग- सबसे पहले हाथीगुफा वाले उनके शिलालेखको म्बराचार्य धर्मसनाचार्य ही केवल उस सभामें उपस्थिन लीजिए। उसमें साफ तौरसे उन्हें 'ऐरेन महागहुए कहे जा सकते हैं । इन सब प्राचार्योको थेरा- जन महापेघवाहनेन चेतिराजवसवधनेना .. .. वली भी दिगम्बर (जिनकल्पी) प्रकट करती है। रही कलि ( 5 ) ग अधिपतिना सिरि खारवेलेन' बात सवा साधनोंकी, सी थरावलिमें ये मुस्थित, सु- लिखा है। इसमें प्रयक्त हुए ऐरेन' शब्द का भाव प्रतिबुद्ध, उमास्वाति व श्यामाचार्य प्रभृति बताए हैं। लवंशज के रूपमें और 'पर' (आर्य ) रूपमें भी इनमें से पहले दो इस सभामें शामिल नहीं हो सकतं, लिया जाता है।३। इनका ऐन-वंशज होना न केवल यह हम देख चुके (!) । रहे शेप दो, सो ये भी उक्त डिट पराणों में ही सिद्ध है; बल्कि दिगम्बरजैन हरिसभामें नहीं पहुँच सकते, क्योंकि उमास्वाति इस घ-जगणक कथनस भी प्रमाणित है।४ । हिन्दू पुराणों १२ Indian Antiquary Xx, pp.3.15.346. के अनमार ई०प० २१३ के वाद जिन राजवंशीका व_* यह सब निर्णय ठीक नहीं है। क्योंकि इन माचाएक दश- णन है, उनमेंम एकका वर्णन निम्न प्रकार है१५:पूर्वदिके पाठी होने का समय भिन्न होने पर भी इनका समकालीन (१) यह कौशल (दक्षिण कौशल) का राजवंश था। होना कोई बाधक मालूम नही होता---यह नहीं कहा जा सकता कि 1२) यह साधारणतः 'मेघ' ( Meghas) मेघा इति उक ज्ञानको प्राप्तिमे पहले व मुनिया माचार्य,दि कुछ नहीं थे । बुद्धिलिंगको दशपूर्व ज्ञानकी प्राप्ति वीरनिवं गाम २६५ वर्ष बाद , ई मौर
ममाख्याताः ) नाममं विख्यात था। २० तक रही बतलाई गई है। उनके बाद दवचार्यको यह सिद्धि
(३) यह विशेष शक्तिवाला और विद्वान था, और ईमौर खारवेलकी राज्यपानि शवलिकरने वीरनिगमे ३.. . बधीन' शब्दका प्रयोग बड़ाही . जान पड़ता है। वर्ष बाद लिजी है । इसमे खारवेलकी सभा में इन दोनों प्राचार्टीकी जिस परिचय के लिये लेखक महाशय युद्ध शिलालेख के माधुनिक अस्थिति पावन होसकती और नक्षत्राचार्य भी एकादशांग-झान रोहिंग, उसके मों, पुरागों मोर दूसरे विद्वानोंके वचनेका सहारा की प्रासिसे पहले उस सभामें सम्मिलित हो सकते हैं। लेखक महाशय ले रहे है उसे पाठकोंको म्वाधीनरूपमें प्राप्त कराना चाहते हैं यह एक ने यही बिना मही तरहसे विचार किये,उनके समयको नितान्त भिम बड़ी ही विचित्र बात है।
-सम्पादक पतलाते हए. के सम्मिलित होने की प्रमुभव ठराया है."
१३JBORS. IT. 1434-4:35. १४ Ibid. -सम्पादक
XIII 277-279 १५lbid. IV. 480-132.
(२) यह विशेष शनि
याबलिकरा .यह सिद्धि
वर्ष बाद लिखीम