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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ५
अवतारवाद और महावीर
[ले०-श्रीमान् वा० पद्मराजजी जैन ]
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। गीता का यह वाक्य एक तरह बिलकुल सत्य प्रतीत और न शक्ति के आंशिक टुकड़े ही बन सकते हैं।
"होता है, जब कि भारतवर्षमें भिन्न भिन्न मत- भिन्न भिन्न न्यायकारोंने अपने अपने न्यायप्रन्थों में, मतान्तरों और सम्प्रदायोंके उत्थान और पतन के इति- इस विषयका विस्तृत विवेचन अनेक स्थानों पर किया हास की ओर ऐतिहासिक दृष्टिसे देखा जाता है। है, जिसकी चर्चा की यहाँ जरूरत नहीं । अस्तु । पदपि गीताके इस वाक्यका बहुतसे विद्वानोंने अवतार• आजसे लंगभग ढाई हजार वर्ष पहले भारतवर्ष पादकी पुष्टिमें उपयोग किया है तो भी अवतारवाद की की इस पवित्र भमि पर दो महान् पुरुषोंका अस्तित्व नींवमें भी वही ऐतिहासिक सत्यकी झलक दिखलाई दिखाई देता है-एक जैनधर्मके अधिनायक भगवान् देती है । संसारमें जब जब राजनैतिक, धार्मिक, पा- 'महावीर' और दूसरे बौद्धधर्मके अधिष्ठाता महाराज यिक अथवा सामाजिक अत्याचारोंको पराकाष्ठा हो 'बुद्ध' । इन दोनों महापुरुषोंने उस समय भारतवर्षमें जाती है, तब सब उस शक्तिसम्पन्न प्रचलित अत्या- प्रज्वलित हिंसाग्नि पर महिंसाके रूपमें शान्तिकीअनंत चारिणी शक्ति के विरुद्ध खड़े होनेकी भावना किसी वष्टि कर जनताके संतप्त हृदयका शान्त करनेका पूरा एक व्यक्ति विशेषके हृदयमें सविशेष रूपसे जागृत प्रयत्न किया था । यदि खोजकी जाती है तो मालूम हुमा करती है । और समय आने पर-उसी जन्मसे होता है कि यह अहिंसात्मक मनोवृत्ति अथवा भारतवर्षे अथवा जन्मान्तर लेकर-जब उस प्रतिबन्धक शक्तिका में धर्मके नाम पर प्रचलित हिंसाके विरुद्ध एकान्दोक्रम-विकाश अथवा क्रान्तिके रूपमें प्रादुर्भाव होता है लन-भले ही वह आन्दोलन कितना ही क्षीण क्यों तभी संसार उस शक्तिशाली व्यक्ति को भवतार, नहो-पहलेसे प्रारंभ हो चुका था। थोड़े ही दिनों साक्षात् ईश्वर मादि कह कर उसका अभिनंदन किया बाद इन दोनों महापुरुषोंने उसी प्रतिवादात्मक मनोवृ. करता है । अन्यथा, एक ईश्वर जैसे पनिमित व्यकि चिको क्रान्तिके रूपमें परिणत कर सारे देशमें भहिंसा • अथवा पदार्थमें न तो कोई सन्तानका होना बन सकता एवं दयाको अटल मजा फहरायी थी। इसी लिये हैन खुद इसका किसीको सन्तान बनना संभव है इन दोनों धर्मों के तात्कालिक रूपको यदि हम प्रतिवा