________________
जैनों की अहिंसा
फाल्गुन, वीर नि० सं० २४५६]
अत्याचार के परिमार्जन के लिये ही होते हैं। इसलिये उचित कोटि के अन्तर्गत होने से उन्हें गृहस्थाश्रम में अत्याज्य बतलाया है। उनसे मानसिक विकार - परम्परा का एक प्रकारसे प्रभाव होता है, आत्मिक विकासको अवसर तथा उत्तेजन मिलता है और आदर्श पुरुषत्व का आविर्भाव होता है। ऐसे ही पुरुषत्व से विशिष्ट अन्याय-प्रतिशोधक वीरोंकी छत्र छायाका लोग आश्रय लते हैं और उनके अनुयायी बनकर एक ऐसे बलवान समुदायकी सृष्टि कर डालते हैं जिसके द्वारा दुर्बलों को बल प्राप्त होकर अविवेक तथा अन्याय पूर्ण कृतियों का सत्यानाश होता है अथवा अन्याय- परम्पराका उच्छेद होता है । ऐसे ही पुरुषों का पुरुषत्व दीन-दुर्बलों के भयभीत अन्तःकरण में होने वाली क्लेश-परम्परा का उद्धार करता है, इसीसे उसको दयाभाव कहा गया है । सारांश, गृहस्थाश्रम में वीरों की इस न्यायानरूप प्रवृत्तिको उचित और व्यापक दयाका श्रासन प्राप है । जो इस भावकी रक्षा न करते हुए वैयक्तिक दया का स्वांग करते हैं वे गृहस्थ 'वास्तव में दयालु -पद के अधिकारी नही हैं। दया की समीचीन मर्यादा को ठीक न समझने के कारण ही पृथ्वीराजने महोम्मद गौरी को छोड़कर निःसन्देह वैयक्तिक दया का दुरूपयोग किया था और उससे राष्ट्र की भयंकर हानि पहुँची है।
यः शखवृतिः समरे रिपुः स्यात् यः कण्टको वा निजमंडलस्य ।
अस्राणि तत्रैव
नृपाः चिपन्ति
न दीन - कानीन - शुभाशयेषु ॥
* "दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । -क्शस्तिलके, सोमदेवः ।
— यशस्तिलक उ० पृ०
९६
२०७
इसमें बतलाया है कि - 'जो रणाङ्गण में युद्ध करने को सन्मुख हों अथवा अपने देशके कंटक - उसकी उन्नतिमें बाधक - - हों क्षत्रिय वीर उन्हीं के ऊपर शस्त्र उठाते हैं - दीन, हीन और साधू आशय वालोंके प्रति नहीं ।'
इससे यह साफ़ ध्वनित होता है कि दीन, हीन तथा शुभाशय वालों पर शस्त्र उठाना जैसे अन्याय एवं हिंसा है वैसे ही अपने देशके कंटकों (शत्रुओं पर उसका न उठाना भी अन्याय और हिंसा है। अन्याय का सदा ही प्रतिरोध होना चाहिये, प्रतिरोध न होनेसे अन्याय बढ़ जाता है और उसके कारण धर्म-कर्म के अनुष्ठानकी सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है अथवा उसके आचरण में बाधा उपस्थित होती है । श्रतः किमी भी प्रकार की श्राजीवका के करते समय न्यायमार्गका कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।
इस विषय में सोमदेवाचार्यका निम्न वाक्य भी करते समय, जिसमें कि गृहस्थोंके उपयोगका बहुभाग
ग्वाम नौरसे ध्यान में रखने योग्य है
लगा रहता है, जिन व्यक्तियों का चित उचित धनुचित का खयाल नहीं रखता उनका चित्त स्वच्छ तथा
पं० श्रशाधरजी ने गृहस्थ-धर्मकी पात्रता के लिए जिन गुणों का होना आवश्यक बतलाया है उनमें भी न्यायपूर्वक आजीविका को प्रथम स्थान दिया है । और यह ठीक ही है; क्योंकि आजीविकाके उपार्जन
* न्यायोपासनाः गजन् गुधगुरून्सीसिवर्ग भजअन्योन्यामुपहिचीस्थानालयो ड्रीमयः 1 युक्तद्वारविहार धार्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो क्शी मन् धर्मविधि क्यारभीः सागारधर्म चेत् ॥