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चैत्र, वीरनि० सं०२४५६]
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पुरानी बातों की खोज
PHARMA
किसी शिलालेमें नहीं पाया जाता । उदाहरण के लिए उमास्वाति या उमास्वामी? कुछ अवतरण नीचे दिये जाते हैंदिगम्बर सम्प्रदायमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम
अभमास्वातिमुनीश्वरोऽसाआजकल आम तौरसे 'उमास्वामी' प्रचलित हो रहा
वाचार्यशन्दोत्तरग,पिञ्छः।
शलालेखनं०४७ है। जितने प्रन्थ और लेख श्राम तौरसे प्रकाशित होते
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशहैं और जिन में किसी न किसी रूपसे तत्त्वार्थसूत्रके म्तत्वार्थसत्रं प्रकटीचकार । कर्ताका नामोल्लेख करनेकी जरूरत पड़ती है उन सबमें
-शि०नं० १०५ प्रायः उमास्वामी नामका ही उल्लेख किया जाता है।
मदुमास्वातिमुनिः पवित्र बल्कि कभी कभी तो प्रकाशक अथवा सम्पादक जन वंशे तदीये सकलार्यवेदी। 'उमास्वाति' की जगह 'उमाम्वामी' या 'उमास्वामि' का
मत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं मंशोधन तक कर डालते हैं । नत्त्वार्थसत्रके जितने
शास्त्रार्थनानं मुनिपुंगवन ॥ संस्करण निकले हैं उन सबमें भीग्रन्थकर्ताका नाम उमा
-शि० नं०१०८ म्वामी ही प्रकट किया गया है। प्रत्युत इसके, श्वेताम्बर इन शिलालेखोंमें पहला शिलालेख शक संवत मम्प्रदायमें प्रन्थकर्ताका नाम पहलेसे ही 'उमास्वाति' १०३७ का, दूसा १३२० का और तीसरा १३५५ का चला आता है और वही इस ममय प्रसिद्ध है। अब लिखा हुआ है । ४७वें शिलालेखवाला वाक्य ४०, ४, देखना यह है कि उक्त प्रन्थकर्ताका नाम वास्तवमें उमा- ४३ और ५० नम्बरके शिलालेखोंमें भी पाया जाता है। म्वाति था या उमास्वामी और उसकी उपलब्धि कहाँ इससे स्पष्ट है कि आजस आठ सौ वर्षसे भी पहले से से होती है । स्वाज करनेसे इस विषय में दिगम्बर दिगम्बर सम्प्रदायमें तत्वार्थसूत्रके कर्वाका नाम 'उमामाहित्यसे जो कुछ मालूम हुआ है उसे पाठकों के अव- स्वाति' प्रचलित था और वह उसके बाद भी कई सौ लोकनार्थ नीचे प्रकट किया जाता है- वर्ष तक बराबर प्रचलित रहा है। साथ ही, यह भी
(१) श्रवणबेलगोलके जितने शिलालेखों में प्राचार्य मालूम होता है कि उनका दूसरा नाम गृधपिन्छाचार्य महोदयका नाम आया है उन सबमें आपका नाम था। विद्यानन्द स्वामी ने भी, अपने 'लोकवार्तिक में, 'उमास्वाति' ही दिया है। 'उमास्वामी' नामका उल्लेख इस पिछले नामका उल्लेख किया है।