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पैरवीर नि०सं० २४१६] जैनधर्म में महिंसा
२८१ जीवन का त्याग करना पड़ता है आत्महत्या कायरवा इसके अतिरिक्त और भीबहुत से कारण हो सकते है परन्तु उपर्युक्त घटनाएँ वीरता के जाज्वल्यमान है जैसे परिचर्या न हो सकना मावि; परंतु उपर्वत उदाहरण हैं। इन्ही उदाहरणोके भीतरसमाधिमरएको कारण तो अवश्य होने ही चाहिये । इस कार्य में एक घटनाएँ भी शामिल हैं।
बात सब से अधिक मावश्यक है। वह है परिणामोडी हाँ, दुनिया में प्रत्येक सिद्धान्त और प्रत्येक रिवाज निर्मलता, निःस्वार्थता मादि । जिस जीवका प्राणत्याग का दुरुपयोग हो सकता है और होताभीहै । बंगालमें करना है उसीकी भलाईका ही लक्ष्य होना चाहिए। कुछ दिन पहिले 'अंतक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता इससे पाठक समझे होगे कि प्राणत्याग करने और था। अनेक लोग वृद्धा स्त्रीको गंगाके किनारे ले जाते करानेसे ही हिंसा नहीं होती-हिंसा होती है, थे और उससे कहते थे-'हरि बोल'।अगर उसने 'हरि' जब हमारे भाव दुःख देने के होते हैं। मतलब यह कि बोल दिया तो उसे जीते ही गंगा में बहा देते थे। परंतु कोरी द्रव्यहिमा, हिंसा नहीं कहला सकती । साबमें वह हरि नहीं बोलती थी इससे उसे बार बार पानीमें इतना और समझ लेना चाहिए कि कोरा प्राणवियोग डबा सुबा कर निकालते थे और जब तक वह हरि न हिंसा तो क्या, द्रव्यहिंसा भी नहीं कहला सकता। बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करत रहते थे प्राणवियोगम्बत द्रव्यहिंसा नहीं है परन्तु वह दु.खरूप जिससे घबरा कर वह 'हरि' बोल दिया करती थी द्रव्यहिंसा का कारण होता है इसलिए व्यहिंसा
और वे लोग उसे स्वर्ग पहुंचा देते थे । 'अंतिमक्रिया' कहलाता है। अनंकदेव की निम्नलिम्बित पंनियों से का यह कैसा भयानक दुरुपयोग था । फिर भी भी यह बात ध्वनित होती हैदुरुपयोगके डर से अच्छे कामका त्याग नहीं किया 'म्यान्मतं मारणेभ्योऽयमात्मा मत:माणजाता, किन्तु यथासाध्य दुरुपयोगको रोकने के लिये वियांगेन प्रात्मनःकिञ्चिनयतीन्यामानास्पात कुछ नियम बनाये जाते हैं । अपनं और परके प्राण- इति, तम, किं कारणं? सदरखोत्पादकत्यात त्यागके विषयमें निम्न लिखित नियम उपयोगी है:- प्राणव्यपगपणे हि सनि ससंबंपिनो जीवस्य
(१) रोगप्रथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो। दःखात्पयते इत्यवसिद्धिः।" . . (२) सबने रोगीके जीवनकी आशा छोड़ दी हो।
-तत्वार्थराजबार्तिक । (३) प्राणी स्वयं प्राणत्याग करने को तैयार हो। इनमें बतलाया है कि 'भारमा नो प्राथमि पृथक् है इस (यदि प्राणीकी इच्छा जानने का कोई मार्ग न हो तो लिये प्राणोके वियोग करने परभीमात्माकाकुछ (विगाइ) इस क्रिया कराने वाले को शुद्ध हृदय से विचारना न होनसे अधर्म न होगा, यदि ऐमा कहा जाय तो यह चाहिये कि ऐमी परिस्थिति में यह प्राणी क्या चाह ठीक नहीं हैं। क्योंकि प्राणवियोगहोने पर दुःख होता सकता है।)
है इसलिए अधर्म सिख हुमा।' (४) जीवनकी अपेक्षा उसका त्याग ही उसके इससे मालूम हुमा कि द्रव्यहिंसा तो दुःखल्म है। लिये श्रेयस्कर (धर्माविकी रक्षाका कारण) सिद्ध होता प्राणवियोग दुःखका एक बड़ा साधन है इसलिये यह
इत्याहिमा कहलाया । यह द्रश्यहिमा भी मावहिसाके