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कक दास की महासकता. अस शिलालमहाराजकीतियार
जानकार
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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ५ की तरह इस ९ वी पंक्तिके "कल्परखें' पदका भी हम पाश्चात्य रीत्यानुसार गणना कर उसकी प्रारंभिक उचित अर्थ नहीं किया है। इसीसे वे इस पंक्तिका अवस्था या उत्पत्तिकाल पर पहुँचने का प्रयत्न करेंगे आशय 'स्वर्णकल्पवृक्षादिकं दान का' लगाते हैं; किंतु तो वैदिक कालसे पूर्व नहीं तो बराबर अवश्य पहुँच इसका माशय होना चाहिये-(कल्पद्रुममह की पूर्णता जायँगे। मैं तो कहूँगा कि यह विधान वैदिक कालस के लिये या) कल्पद्रुम यज्ञमें हाथी घोड़े आदि किमि- बहुत पर्व समय का है; कारण हमारे अंतिम 'चक्रवर्ती छक दानका ।*
श्रीब्रह्मदत्त' श्रीनेमिनाथजी २२वें तीर्थकरके बाद और खाग्वेलके इस कल्पदममह आदिके उल्लेखसे चार श्रीपार्श्वनाथजी २३वें तीर्थकरके बहुत पहिले हुए हैं। * प्रकार की जैनपूजा पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री महाराज खारवेल नतन मंदरादिक निमोण की प्राप्त हाताह बार इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता अपेक्षा जीर्णोद्धारमें ही विशेष महत्त्व समझत
मत था है। किंतु विषयान्तर हानेके भयमे इस समय मैं पाठकों
___ यह भी इस शिलालेखसे स्पष्ट हो जाता है। क्या में क्षमा चाहता हूँ। हाँ, इनना अवश्य कहूँगा कि
हमारे जैनी भाई भी उन महाराज वारवेल का अनइतने प्राचीन काल में भी हमारा पजाविधान जब इतना परिपूर्ण था कि इस २०वीं शताब्दी तक उममें किसी
मरण कर इस पवित्र जैन-धर्म की प्राचीन कीत्तियोंकी
रक्षा करेंगे? प्रकार का सुधार या विकार नहीं हुआ तब यदि
इस शिलालेखमें और भी जैनधर्म-संबंधी अनेक मा भाशय क्यों होना चाहिये. और दूसरे विद्वानों का बढ़
बातें हैं, जिनका दिग्दर्शन पाठकों को फिर किसी समय भाशय अथवा प्रर्थ उचित क्यों नहीं। इंम बतलाने की लेखक
कगया जायगा। महाशयंने कोई कृपा नहीं की: मालमन प्रापका यह कथन किस भाधार पर अवलम्बित है। मूलमें कम्पहने' पदक साथ 'मह'
। ब्रह्मदन के इस होने में लेखक महाशय जो नतीजा निकाशन का कोई प्रयोग नहीं है, न किमिन्छक दान का ही पक्ति भर
लना चाहते हैं वह यदि किसी तरह निकाला भी जा सके तो उस में की उदेख है, लग्वकी भाषा में द्वितीयाक बबन का रूप भी
वक्त तक नही निकाला जा सकता जब तक कि अधिक प्राचीन सा'कन्पव' बनता है जिमका मस्कृत रूप 'कल्पवतान' होता है मौर
हित्य पर में यह सिद्ध न कर दिया जाय कि ब्रह्मदत्तने भी 'कल्पद्म
मह' नाम का वेमा पूजाविधान किया था। अधिक प्राचीन साहित्य बह सायं यथा परिषसने जैम दसरब वचनान्त द्वितीयाक निश्चित रूपोंक साथ समानता रखता है, उसके पहले ८ वी पक्तिक
की बात तो दूर, १०वीं शताफीके विद्वान् गुगभद्राचार्यके उत्तरपुराण अन्त में 'पलबभरे विशेषणा भी उसके बबचनांत द्वितीयाका रूप
में भी उसका कोई उ.म्वनीं है। अधिक प्राचीन साहित्य में तो इन होमिको ही सुचित करता है-मसमीके एकवचनका रूप नहीं । इसक
चर या पांच प्रकार के प्रजाभेदों का भी कुछ उलेख नहीं मिलता, सिवाय हिन्द मन्थों में ब्राह्मणोंको कल्पवत बनाकर दान देनेका विधन
मौर शायद यही वजह हो जा लेखक महाशय जिनसेनक मादिपुराण पाया जाता है, और इस पक्तिमें ब्राह्मणों को लेकर वीं शताब्दी) से पहलेका कोई प्रमाया कल्पगुममहके स्वस्पादि उंस हैं, जबकि कन्याममहमें ब्राह्मणों काहीदान दिय जान
सम्बन्ध में अन्धित नहीं कर सके हैं। यदि यह कहा जाय कि चकी कोई खसियतनी हो सकती थी। ऐसी हालतमें अपने प्रर्य
कवी तो सभी नियमम कल्पद्रममह किया करते हैं, तब या तो की यथार्थतास कोई प्राधार-प्रमाण न बतलाते हुए दमोंक अर्थ
यह करना होगा कि वारंवल ब्रह्मदत्त या भात की कोटिका चक्रवर्ती को बिना किसी युक्ति मनुचित ठाना मझे तो कह सक्ति प्रतीत
न होने में कल्पाममहका अधिकारी नहीं था और या खारवेल की मी होता।
-सम्पादक
कोटि के चन्द्रगुप्त, प्रशोक और प्रकार में सत्राटोंकी बाबत भी + तबसे प्रब तक "उसमें किसी प्रकार का सधार या विकर यह बतलाना होगा कि उन्होंने भी 'कल्पममह' किया है, जो इतिनदीमा" यहना निःसन्देह एकपोती सासरा हाससे सिख नहीं है। दोनों ही तरहसे कुछ बात ठीक नहीं बनेगी। जेवणात्य को देखते हुए. मुझे तो यह पनपत ही मापत्तिके प्रतः जिस आधार पर उकमतीजा निकालने का प्रयन किया गया बोल्व जान पाता है।
-सम्पादक बल समुचित प्रतीत नहीं होता। -सम्पादक